वेदाबेस​

श्लोक 18.4

निश्चयं श‍ृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविध: सम्प्रकीर्तित: ॥ ४ ॥

निश्र्चयम् - निश्र्चय को; शृणु - सुनो;मे - मेरे; तत्र - वहाँ; त्यागे - त्याग के विषय में; भरत-सत्-तम - हे भरतश्रेष्ठ; त्यागः - त्याग; हि - निश्चय ही; पुरुष-व्याघ्र - हे मनुष्यों में बाघ; त्रि-विधः - तीन प्रकार का; सम्प्रकीर्तितः - घोषित किया जाता है ।

भावार्थ

हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनो । हे नरशार्दूल! शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है ।

तात्पर्य

यद्यपि त्याग के विषय में विभिन्न प्रकार के मत हैं, लेकिन परम पुरुष श्रीकृष्ण अपना निर्णय दे रहे हैं, जिसे अन्तिम माना जाना चाहिए । निस्सन्देह, सारे वेद भगवान् द्वारा प्रदत्त विभिन्न विधान (नियम) हैं । यहाँ पर भगवान् साक्षात् उपस्थित हैं, अतएव उनके वचनों को अन्तिम मान लेना चाहिए । भगवान् कहते हैं कि भौतिक प्रकृति के तीन गुणों में से जिस गुण में त्याग किया जाता है, उसी के अनुसार त्याग का प्रकार समझना चाहिए ।

बेस- पूरे विश्व में वैदिक संस्कृति सिखाने का लक्ष्य

©2020 BACE-भक्तिवेदांत सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्था

www.vedabace.com यह वैदिक ज्ञान की विस्तृत जानकारी है जो दैनिक साधना, अध्ययन और संशोधन में उपयोगी हो सकती है।

अधिक जानकारी के लिए कृपया संपर्क करें - info@vedabace.com