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श्लोक 18.3

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण: ।
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥ ३ ॥

त्याज्यम् - त्याजनीय; दोष-वत् - दोष के समान; इति - इस प्रकार; एके - एक समूह के; कर्म - कर्म; प्राहुः - कहते हैं; मनीषिणः - महान चिन्तक; यज्ञ - यज्ञ; दान - दान; तपः - तथा तपस्या का; कर्म - कर्म; न - कभी नहीं; त्याज्यम् - त्यागने चाहिए; इति - इस प्रकार; च - तथा; अपरे - अन्य |

भावार्थ

कुछ विद्वान घोषित करते हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझ कर त्याग देना चाहिए | किन्तु अन्य विद्वान् मानते हैं कि यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना चाहिए |

तात्पर्य

वैदिक साहित्य में ऐसे अनेक कर्म हैं जिनके विषय में मतभेद है | उदाहरणार्थ, यह कहा जाता है कि यज्ञ में पशु मारा जा सकता है, फिर भी कुछ का मत है कि पशुहत्या पूर्णतया निषिद्ध है | यद्यपि वैदिक साहित्य में पशु-वध की संस्तुति हुई है, लेकिन पशु को मारा गया नहीं माना जाता | वह बलि पशु को नवीन जीवन प्रदान करने के लिए होती है | कभी-कभी यज्ञ में मारे गये पशु को नवीन पशु-जीवन प्राप्त होता है, तो कभी वह पशु तत्क्षण मनुष्य योनि को प्राप्त हो जाता है | लेकिन इस सम्बन्ध में मनीषियों में मतभेद हैं | कुछ का कहना है कि पशुहत्या नहीं की जानी चाहिए और कुछ कहते हैं कि विशेष यज्ञ (बलि) के लिए यह शुभ है | अब यज्ञ-कर्म विषयक विभिन्न मतों का स्पष्टीकरण भगवान् स्वयं कर रहे हैं |

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