श्लोक 18.20
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ २० ॥
सर्व-भूतेषु - समस्त जीवों में; येन - जिससे; एकम् - एक;भावम् - स्थिति; अव्ययम् - अविनाशी; ईक्षते - देखता है; अविभक्तम् - अविभाजित; विभक्तेषु - अनन्त विभागों में बँटे हुए में; तत् - उस; ज्ञानम् - ज्ञान को; विद्धि - जानो; सात्त्विकम् - सतोगुणी |
भावार्थ
जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है, उसे ही तुम सात्त्विक जानो |
तात्पर्य
जो व्यक्ति हर जीव में, चाहे वह देवता हो, पशु-पक्षी हो या जलजन्तु अथवा पौधा हो, एक ही आत्मा देखता है, उसे सात्त्विक ज्ञान प्राप्त रहता है | समस्त जीवों में एक ही आत्मा है, यद्यपि पूर्व कर्मों के अनुसार उनके शरीर भिन्न-भिन्न हैं | जैसा कि सातवें अध्याय में वर्णन हुआ है, प्रत्येक शरीर में जीवनी शक्ति की अभिव्यक्ति परमेश्र्वर की पराप्रकृति के कारण होती है | उस एक पराप्रकृति, उस जीवनी शक्ति को प्रत्येक शरीर में देखना सात्त्विक दर्शन है | यह जीवनी शक्ति अविनाशी है, भले ही शरीर विनाशशील हों | जो आपसी भेद है, वह शरीर के कारण है | चूँकि बद्धजीवन में अनेक प्रकार के भौतिक रूप हैं, अतएव जीवनी शक्ति विभक्त प्रतीत होती है | ऐसा निराकार ज्ञान आत्म-साक्षात्कार का एक पहलू है |
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