श्लोक 12.17
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ॥ १७ ||
yaḥ — one who; na — never; hṛṣyati — takes pleasure; na — never; dveṣṭi — grieves; na — never; śocati — laments; na — never; kāṅkṣati — desires; śubha — of the auspicious; aśubha — and the inauspicious; parityāgī — renouncer; bhakti-mān — devotee; yaḥ — one who; saḥ — he is; me — to Me; priyaḥ — dear.
भावार्थ
जो न कभी हर्षित होता है, न शोक करता है, जो न पछताता है, न इच्छा करता है, तथा शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है |
तात्पर्य
शुद्ध भक्त भौतिक लाभ से न तो हर्षित होता है और न हानि से दुखी होता है, वह पुत्र या शिष्य की प्राप्ति के लिए न तो उत्सुक रहता है, न ही उनके न मिलने पर दुखी होता है | वह अपनी किसी प्रिय वस्तु के खो जाने पर उसके लिए पछताता नहीं | इसी प्रकार यदि उसे अभीप्सित की प्राप्ति नहीं हो पाती तो वह दुखी नहीं होता | वह समस्त प्रकार के शुभ, अशुभ तथा पापकर्मों से सदैव परे रहता है | वह परमेश्र्वर की प्रसन्नता के लिए बड़ी से बड़ी विपत्ति सहने को तैयार रहता है | भक्ति के पालन में उसके लिए कुछ भी बाधक नहीं बनता | ऐसा भक्त कृष्ण को अतिशय प्रिय होता है |
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