श्लोक 10 . 41
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽशसम्भवम् ॥ ४१ ॥
यत् – यत् – जो जो; विभूति – ऐश्र्वर्य ; मत् – युक्त; सत्त्वम् – अस्तित्व; श्री-मत् – सुन्दर; उर्जिवम् – तेजस्वी; एव – निश्चय ही; वा – अथवा; तत्-तत् – वे वे; एव – निश्चय ही; अवगच्छ – जानो; तवम् – तुम; मम – मेरे; तेजः – तेज का; अंश – भाग, अंश से; सम्भवम् – उत्पन्न |
भावार्थ
तुम जान लो कि सारा ऐश्र्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं |
तात्पर्य
किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को, चाहे वह अध्यात्म जगत में हो या इस जगत में, कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए | किसी भी अलौकिक तेजयुक्त वस्तु को कृष्ण की विभूति समझना चाहिए |
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