श्लोक 15.11
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतस: ॥ ११ ॥
yatantaḥ — endeavoring; yoginaḥ — transcendentalists; ca — also; enam — this; paśyanti — can see; ātmani — in the self; avasthitam — situated; yatantaḥ — endeavoring; api — although; akṛta–ātmānaḥ — those without self-realization; na — do not; enam — this; paśyanti — see; acetasaḥ — having undeveloped minds.
भावार्थ
आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्नशील योगीजन यह स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । लेकिन जिनके मन विकसित नहीं हैं और जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं हैं, वे प्रयत्न करके भी यह नहीं देख पाते कि क्या हो रहा है ।
तात्पर्य
अनेक योगी आत्म-साक्षात्कार के पथ पर होते हैं, लेकिन जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, वह यह नहीं देख पाता कि जीव के शरीर में कैसे-कैसे परिवर्तन हो रहा है । इस प्रसंग में योगिनः शब्द महत्त्वपूर्ण है । आजकल ऐसे अनेक तथाकथित योगी हैं और योगियों के तथाकथित संगठन हैं, लेकिन आत्म-साक्षात्कार के मामले में वे शून्य हैं । वे केवल कुछ आसनों में व्यस्त रहते हैं और यदि उनका शरीर सुगठित तथा स्वस्थ हो गया,तो वे संतुष्ट हो जाते हैं | उन्हें इसके अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं रहती । वे यतन्तोSप्यकृतात्मानः कहलाते हैं | यद्यपि वे तथाकथित योगपद्धति का प्रयास करते हैं, लेकिन वे स्वरूपसिद्ध नहीं हो पाते | ऐसे व्यक्ति आत्मा के देहान्तरण को नहीं समझ सकते | केवल वे ही ये सभी बातें समझ पाते हैं, जो सचमुच योग पद्धति में रमते हैं और जिन्हें आत्मा, जगत् तथा परमेश्र्वर की अनुभूति हो चुकी है | दूसरे शब्दों में, जो भक्तियोगी हैं वे ही समझ सकते हैं कि किस प्रकार से सब कुछ घटित होता है |
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