श्लोक 11 .19
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ १९ ॥
अनादि – आदिरहित; मध्य – मध्य; अन्तम् – या अन्त; अनन्त – असीम;वीर्यम् – महिमा; अनन्त – असंख्य; बाहुम् – भुजाएँ; शशि – चन्द्रमा; सूर्य – तथासूर्य; नेत्रम् – आँखें; पश्यामि – देखता हूँ; त्वाम् – आपको; दीप्त – प्रज्जवलित;हुताश-वक्त्रम् – आपके मुख से निकलती अग्नि को; स्व-तेजसा – अपने तेज से;विश्र्वम् – विश्र्व को; इदम् – इस; तपन्तम् – तपाते हुए |
भावार्थ
आप आदि, मध्य तथा अन्त से रहित हैं | आपका यश अनन्त है | आपकी असंख्यभुजाएँ हैं और सूर्य चन्द्रमा आपकी आँखें हैं | मैं आपके मुख से प्रज्जवलित अग्निनिकलते और आपके तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलाते हुए देख रहा हूँ |
तात्पर्य
भगवान् के षड्ऐश्र्वर्यों की कोई सीमा नहीं है | यहाँ परतथा अन्यत्र भी पुनरुक्ति पाई जाती है, किन्तु शास्त्रों के अनुसार कृष्ण की महिमाकि पुनरुक्ति कोई साहित्यिक दोष नहीं है | कहा जाता है कि मोहग्रस्त होने या परमआह्लाद के समय या आश्चर्य होने पर कथनों की पुनरुक्ति हुआ करती है | यह कोई दोष नहीं है |
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