SB 10.62.15
तमहं मृगये कान्तं पाययित्वाधरं मधु ।
क्वापि यात: स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे ॥ १५ ॥
क्वापि यात: स्पृहयतीं क्षिप्त्वा मां वृजिनार्णवे ॥ १५ ॥
tam — Him; aham — I; mṛgaye — am seeking; kāntam — lover; pāyayitvā — having made drink; ādharam — of His lips; madhu — the honey; kva अपि — somewhere; yātaḥ — has gone; spṛhayatīm — hankering for Him; kṣiptvā — having thrown; mām — me; vṛjina — of distress; arṇave — in the ocean.
भावार्थ
It is that lover I search for. After making me drink the honey of His lips, He has gone elsewhere, and thus He has thrown me, hankering fervently for Him, into the ocean of distress.
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