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चेतोदर्पणमार्जनं
श्री शिक्षाष्टकम्
श्री गौरसुन्दर चैतन्य महाप्रभु

पुस्तक : चैतन्य चरितामृत (खण्डः अंत्य लीला अध्याय 20 श्लोक 12, 16, 21, 29, 32, 36, 36, 39 एवं 39 एवं 39 एवं 47)
लेखक : कृष्णदास कवीराज
चेतोदर्पणमार्जनं भव-महादावाग्नि-निर्वापणम् श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् । आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥
नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥२॥
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥
(4)
न धनं न जनं ण सुन्दरीं
कवितां वा जगदीश कामये |
मम जन्मनि जन्मनीश्र्वरे
भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ||
अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ। कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥
युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्-मर्महतां करोतु वा। यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्-तु स एव नापरः॥८॥

श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥

हे भगवन ! आपका मात्र नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है-कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियां अर्पित कर दी हैं । इन नामों का स्मरण एवं कीर्तन करने में देश-काल आदि का कोई भी नियम नहीं है । प्रभु ! आपने अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यंत ही सरलता से भगवत-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में अब भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाया है ॥२॥

स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान की कामना न करके दुसरो को सदैव मान देकर हमें सदा ही श्री हरिनाम कीर्तन विनम्र भाव से करना चाहिए ॥३॥

4) O almighty Lord, I have no desire to accumulate wealth, nor do I desire beautiful women nor do I want any number of followers. I only want Your causeless devotional service, birth after birth.

हे सर्व समर्थ जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनुयायियों, सुन्दर स्त्री अथवा प्रशंनीय काव्यों का इक्छुक नहीं हूँ । मेरी तो एकमात्र यही कामना है कि जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहैतुकी भक्ति कर सकूँ ॥४॥ हे नन्दतनुज ! मैं आपका नित्य दास हूँ किन्तु किसी कारणवश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में गिर पड़ा हूँ । कृपया मुझे अपने चरणकमलों की धूलि बनाकर मुझे इस विषम मृत्युसागर से मुक्त करिये ॥५॥

हे प्रभु ! आपका नाम कीर्तन करते हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी, कब आपका नामोच्चारण मात्र से ही मेरा कंठ गद्गद होकर अवरुद्ध हो जायेगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा ॥६॥

हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है । नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरंतर अश्रु-प्रवाह हो रहा है तथा समस्त जगत एक शून्य के समान दिख रहा है ॥७॥

एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे ही सदैव बने रहेंगे, चाहे वे मेरा आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे आहत करें। वे नटखट कुछ भी क्यों न करें -वे सभी कुछ करने के लिए स्वतंत्र हैं क्योंकि वे मेरे नित्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥

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