वेदाबेस​

श्लोक 9 . 6

यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥ ६ ॥

यथा – जिस प्रकार; आकाश-स्थितः – आकाश में स्थित; नित्यम् – सदैव; वायुः- हवा; सर्वत्र-गः – सभी जगह बहने वाली; महान – महान; तथा – उसी प्रकार; सर्वाणि भूतानि – सारे प्राणी; मत्-स्थानि – मुझमें स्थित; इति – इस प्रकार; उपधारय – समझो |

भावार्थ

जिस प्रकार सर्वत्र प्रवहमान प्रबल वायु सदैव आकाश में स्थित रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्न प्राणियों को मुझमें स्थित जानो |

तात्पर्य

सामान्यजन के लिए यह समझ पाना कठिन है कि इतनी विशाल सृष्टि भगवान् पर किस प्रकार आश्रित है | किन्तु भगवान् उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जिससे हमें समझने में सहायता मिले | आकाश हमारी कल्पना के लिए सबसे महान अभिव्यक्ति है और उस आकाश में वायु विराट जगत् की सबसे महान अभिव्यक्ति है | वायु की गति से प्रत्येक वस्तु की गति प्रभावित होती है | किन्तु वायु महान होते हुए भी आकाश के अन्तर्गत ही स्थित रहती है, वह आकाश से परे नहीं होती | इसी प्रकार समस्त विचित्र विराट अभिव्यक्तियों का अस्तित्व भगवान् की परं इच्छा के फलस्वरूप है और वे सब इस परमइच्छा के अधीन हैं जैसा कि हमलोग प्रायः कहते हैं उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता | इस प्रकार प्रत्येक वस्तु उनकी इच्छा के अधीन गतिशील है, उनकी ही इच्छा से सारी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, उनका पालन होता है और उनका संहार होता है | इतने पर भी वे प्रत्येक वस्तु से उसी तरह पृथक् रहते हैं, जिस प्रकार वायु के कार्यों से आकाश रहता है |

उपनिषदों में कहा गया है – यद्भीषा वातः पवते – “वायु भगवान् के भय से प्रवाहित होती है” (तैत्तिरीय उपनिषद् २.८.१) | बृहदारण्यक उपनिषद् में (३.८.१) कहा गया है – एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्यचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि द्यावापृथिव्यौ विधृतौ तिष्ठतः – “भगवान् की अध्यक्षता में परमादेश से चन्द्रमा, सूर्य तथा अन्य विशाल लोक घूम रहे हैं |” ब्रह्मसंहिता में (५.५२) भी कहा गया है –

yac-cakṣur eṣa savitā sakala-grahāṇāṁ
rājā samasta-sura-mūrtir aśeṣa-tejāḥ
yasyājñayā bhramati sambhṛta-kāla-cakro
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ||

यह सूर्य की गति का वर्णन है | कहा गया है कि सूर्य भगवान् का एक नेत्र है और इसमें ताप तथा प्रकाश फैलाने की अपार शक्ति है | तो भी यह गोविन्द की परम इच्छा और आदेश के अनुसार अपनी कक्षा में घूमता रहता है | अतः हमें वैदिक साहित्य से इसके प्रमाण प्राप्त है कि यह विचित्र तथा विशाल लगने वाली भौतिक सृष्टि पूरी तरह भगवान् के वश में है | इसकी व्याख्या इसी अध्याय के अगले श्लोकों में की गई है |

बेस- पूरे विश्व में वैदिक संस्कृति सिखाने का लक्ष्य

©2020 BACE-भक्तिवेदांत सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्था

www.vedabace.com यह वैदिक ज्ञान की विस्तृत जानकारी है जो दैनिक साधना, अध्ययन और संशोधन में उपयोगी हो सकती है।

अधिक जानकारी के लिए कृपया संपर्क करें - info@vedabace.com