श्लोक 9 . 3
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ ३ ॥
अश्रद्यधानाः – श्रद्धाविहीन; पुरुषाः – पुरुष; धर्मस्य – धर्म के प्रति; अस्य – इस; परन्तप – हे शत्रुहन्ता; अप्राप्य – बिना प्राप्त किये; माम् – मुझको; निवर्तन्ते – लौटते हैं; मृत्युः – मृत्यु के; संसार – संसार में; वर्त्मनि – पथ में |
भावार्थ
हे परन्तप! जो लोग भक्ति में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त नहीं कर पाते | अतः वे इस भौतिक जगत् में जन्म-मृत्यु के मार्ग पर वापस आते रहते हैं |
तात्पर्य
श्रद्धाविहीन के लिए भक्तियोग पाना कठिन है, यही इस श्लोक का तातपर्य है | श्रद्धा तो भक्तों की संगति से उत्पन्न की जाती है | महापुरुषों से वैदिक प्रमाणों को सुनकर भी अभागे लोग ईश्र्वर में श्रद्धा नहीं रखते | वे झिझकते रहते हैं और भगवद्भक्ति में दृढ़ नहीं रहते | इस प्रकार कृष्णभावनामृत की प्रगति में श्रद्धा मुख्य है | चैतन्यचरितामृत में कहा गया है कि श्रद्धा तो वह पूर्ण विश्र्वास है कि परमेश्र्वर श्रीकृष्ण की ही सेवा द्वारा आरी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है | यही वास्तविक श्रद्धा है | श्रीमद्भागवत में (४.३१.१४) कहा गया है:-
yathā taror mūla-niṣecanena
tṛpyanti tat-skandha-bhujopaśākhāḥ
prāṇopahārāc ca yathendriyāṇāṁ
tathaiva sarvārhaṇam acyutejyā
“वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी डालें, टहनियाँ तथा पत्तियाँ तुष्ट होती हैं और आमाशय को भोजन प्रदान करने से शरीर की सारी इन्द्रियाँ तृप्त होती हैं | इसी तरह भगवान् की दिव्यसेवा करने से सारे देवता तथा अन्य समस्त जीव स्वतः प्रसन्न होते हैं |” अतः गीता पढ़ने के बाद मनुष्य को चाहिए कि वह गीता के इस निष्कर्ष को प्राप्त हो-मनुष्य को अन्य सारे कार्य छोड़कर भगवान् कृष्ण की सेवा करनी चाहिए | यदि वह इस जीवन-दर्शन से विश्र्वस्त हो जाता है, तो यही श्रद्धा हैं |
इस श्रद्धा का विकास कृष्णभावनामृत की विधि है | कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों की तीन कोटियाँ हैं | तीसरी कोटि में वे लोग आते हैं जो श्रद्धाविहीन हैं | यदि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भक्ति में लगे रहें तो भी उन्हें सिद्द अवस्था प्राप्त नहीं हो पाती | सम्भावना यही है कि वे लोग कुछ काल के बाद नीचे गिर जाएँ | वे भले ही भक्ति में लगे रहें, किन्तु पूर्ण विश्र्वास तथा श्रद्धा के अभाव में कृष्णभावनामृत में उनका लगा रह पाना कठिन है | अपने प्रचार कार्यों के दौरान हमें इसका प्रत्यक्ष अनुभव है कि कुछ लोग आते हैं और किन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृष्णभावनामृत को ग्रहण करते हैं | किन्तु जैसे ही उनकी आर्थिक दशा कुछ सुधर जाती है कि वे इस विधि को त्यागकर पुनः पुराने ढरें पर लग जाते हैं | कृष्णभावनामृत में केवल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगति की जा सकती है | जहाँ तक श्रद्धा की बात है, जो व्यक्ति भक्ति-साहित्य में निपुण है और जिसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्था प्राप्त कर ली है, वह कृष्णभावनामृत का प्रथम कोटि का व्यक्ति कहलाता है | दूसरी कोटि में वे व्यक्ति आते हैं जिन्हें भक्ति-शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, किन्तु स्वतः ही उनकीदृढ़ श्रद्धा है कि कृष्णभक्ति सर्वश्रेष्ठ मार्ग है, अतः वे इसे ग्रहण करते हैं | तृतीय कोटि के व्यक्ति को यह श्रद्धा तो रहती है कि कृष्ण की भक्ति उत्तम होती है, किन्तु भागवत तथा गीता जैसे शास्त्रों से उसे कृष्ण का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पता | कभी-कभी तृतीय कोटि के व्यक्तियों की प्रवृत्ति कर्मयोग तथा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी-कभी वे विचलित होते रहते हैं, किन्तु ज्योंही उनसे ज्ञान तथा कर्मयोग का संदूषण निकल जाता है, वे कृष्णभावनामिट की द्वितीय कोटि या प्रथम कोटि में प्रविष्ट होते हैं | कृष्ण के प्रति श्रद्धा भी तीन अवस्थाओं में विभाजित है और श्रीमद्भागवत में इनका वर्णन है | भागवत के ग्यारहवें स्वंध में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय कोटि की आस्तिकता का भी वर्णन हुआ है | जो लोग कृष्ण के विषय में तथा भक्ति की श्रेष्ठता को सुनकर भी श्रद्धा नहीं रखते और यह सोचते हैं कि यह मात्र प्रशंसा है, उन्हें यह मार्ग अत्यधिक कठिन जान पड़ता है, भले ही वे ऊपर से भक्ति में रत क्यों न हों | उन्हें सिद्धि प्राप्त होने की बहुत कम आशा है | इस प्रकार भक्ति करने के लिए श्रद्धा परमावश्यक है |
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