वेदाबेस​

श्लोक 9 . 14

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्य‍ा नित्ययुक्ता उपासते ॥ १४ ॥

सततम् – निरन्तर; कीर्तयन्तः – कीर्तन करते हुए; माम् – मेरे विषयमें; यतन्तः – प्रयास करते हुए; च – भी; दृढ़-व्रताः – संकल्पपूर्वक; नमस्यन्तः –नमस्कार करते हुए; च – तथा; माम् – मुझको; भक्त्या – भक्ति में; नित्य-युक्ताः –सदैव रत रहकर; उपासते – पूजा करते हैं |

भावार्थ

ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं|

तात्पर्य

सामान्य पुरुष को रबर की मुहर लगाकर महात्मा नहीं बनायाजाता | यहाँ पर उसके लक्षणों का वर्णन किया गया है – महात्मा सदैव भगवान् कृष्ण केगुणों का कीर्तन करता रहता है, उसके पास कोई दूसरा कार्य नहीं रहता | वह सदैवकृष्ण के गुण-गान में व्यस्त रहता है | दूसरे शब्दों में, वह निर्विशेषवादी नहींहोता | जब गुण-गान का प्रश्न उठे तो मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् के पवित्र नाम,उनके नित्य रूप, उनके दिव्य गुणों तथा आसामान्य लीलाओं की प्रशंसा करते हुएपरमेश्र्वर को महिमान्वित करे | उसे इन सारी वस्तुओं को महिमान्वित करना होता है,अतः महात्मा भगवान् के प्रति आसक्त रहता है |

जो व्यक्ति परमेश्र्वर के निराकार रूप, ब्रह्मज्योति, के प्रति आसक्तहोता है उसे भगवद्गीता में महात्मा नहीं कहा गया | उसे अगले श्लोक में अन्य प्रकारसे वर्णित किया गया है | महात्मा सदैव भक्ति के विविध कार्यों में, यथा विष्णु केश्रवण-कीर्तन में, व्यस्त रहता है, जैसा कि श्रीमद्भागवत में उल्लेख है | यहीभक्ति श्रवणं कीर्तनं विष्णोः तथा स्मरणं है | ऐसा महात्मा अन्ततः भगवान् के पाँचदिव्य रसों में से किसी एक रस में उनका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए दृढव्रतहोता है | इसे प्राप्त करने के लिए वह मनसा वाचा कर्मणा अपने सारे कार्यकलापभगवान् कृष्ण की सेवा में लगाता है | यही पूर्ण कृष्णभावनामृत कहलाता है |

भक्ति में कुछ कार्य हैं जिन्हें दृढव्रत कहा जाता है, यथा प्रत्येकएकादशी को तथा भगवान् के आविर्भाव दिवस (जन्माष्टमी) पर उपवास करना | ये सारेविधि-विधान महान आचार्यों द्वारा उन लोगों के लिए बनाये गये हैं जो दिव्यलोक मेंभगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं | महात्माजन इन विधि-विधानों कादृढ़ता से पालन करते हैं | फलतः उनके लिए वाञ्छित फल की प्राप्ति निश्चित रहती है |

जैसा कि इसी अध्याय के द्वितीय श्लोक में कहा गया है, यह भक्ति न केवलसरल है अपितु, इसे सुखपूर्वक किया जा सकता है | इसके लिए कठिन तपस्या करने कीआवश्यकता नहीं पड़ती | मनुष्य सक्षम गुरु के निर्देशन में इस जीवन को गृहस्थ,संन्यासी या ब्रह्मचारी रहते हुए भक्ति में बिता सकता है | वह संसार में किसी भीअवस्था में कहीं भी भगवान् की भक्ति करके वास्तव में महात्मा बन सकता है |

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