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श्लोक 9 . 13

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता: ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ १३ ॥

mahā-ātmānaḥ — the great souls; tu — but; mām — unto Me; pārtha — O son of Pṛthā; daivīm — divine; prakṛtim — nature; āśritāḥ — having taken shelter of; bhajanti — render service; ananya-manasaḥ — without deviation of the mind; jñātvā — knowing; bhūta — of creation; ādim — the origin; avyayam — inexhaustible.

भावार्थ

हे पार्थ! मोहमुक्त महात्माजन दैवी प्रकृति के संरक्षण में रहते हैं | वे पूर्णतः भक्ति में निमग्न रहते हैं क्योंकि वे मुझे आदि तथा अविनाशी भगवान् के रूप में जानते हैं |

तात्पर्य

इस श्लोक में महात्मा का वर्णन हुआ है | महात्मा का सबसे पहला लक्षण यह है कि वह दैवी प्रकृति में स्थित रहता है | वह भौतिक प्रकृति के अधीन नहीं होता और यह होता कैसे है? इसकी व्याख्या सातवें अध्याय में की गई है – जो भगवान् श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण करता है वह तुरन्त भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है | यही वह पात्रता है | ज्योंही कोई भगवान् का शरणागत हो जाता है वह भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त हो जाता है | यही मूलभूत सूत्र है | तटस्था शक्ति होने के कारण जीव ज्योंही भौतिक प्रकृति के वश से मुक्त होता है त्योंही वह आध्यात्मिक प्रकृति के निर्देशन में चला जाता है | आध्यात्मिक प्रकृति का निर्देशन ही दैवी प्रकृति कहलाती है | इस प्रकार से जब कोई भगवान् के शरणागत होता है तो उसे महात्मा पद की प्राप्ति होती है |

महात्मा अपने ध्यान को कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी ओर नहीं ले जाता, क्योंकि वह भलीभाँति जानता है कि कृष्ण ही आदि परं पुरुष, समस्त कारणों के कारण हैं | इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है | ऐसा महात्मा अन्य महात्माओं या शुद्धभक्तों की संगति से प्रगति करता है | शुद्धभक्त तो कृष्ण के अन्य स्वरूपों, यथा चतुर्भुज महाविष्णु रूप से भी आकृष्ट नहीं होते | वे न तो कृष्ण के अन्य किसी रूप से आकृष्ट होते हैं, न ही वे देवताओं या मनुष्यों के किसी रूप की परवाह करते हैं | वे कृष्णभावनामृत में केवल कृष्ण का ध्यान करते हैं | वे कृष्णभावनामृत में निरन्तर भगवान् की अविचल सेवा में लगे रहते हैं |

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