श्लोक 8 . 27
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ २७ ॥
न – कभी नहीं; एते – इन दोनों; सृती – विभिन्न मार्गों को; पार्थ – हे पृथापुत्र; जानन् – जानते हुए भी; योगी – भगवद्भक्त; मुह्यति – मोहग्रस्त होता है; कश्चन – कोई; तस्मात् – अतः; सर्वेषु कालेषु – सदैव; योग-युक्तः – कृष्णभावनामृत में तत्पर; भव – होवो; अर्जुन – हे अर्जुन |
भावार्थ
हे अर्जुन! यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते | अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो |
तात्पर्य
कृष्ण अर्जुन को उपदेश दे रहे हैं कि उसे इस जगत् से आत्मा के प्रयाण करने के विभिन्न मार्गों को सुनकर विचलित नहीं होना चाहिए | भगवद्भक्त को इसकी चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि वह स्वेच्छा से मरेगा या दैववशात् | भक्त को कृष्णभावनामृत में दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर हरे कृष्ण का जप करना चाहिए | उसे यह जान लेना चाहिए कि इन दोनों मार्गों में से किसी की भी चिन्ता करना कष्टदायक है | कृष्णभावनामृत में तल्लीन होने की सर्वोत्तम विधि यही है कि भगवान् की सेवा में सदैव रत रहा जाय | इससे भगवद्धाम का मार्ग स्वतः सुगम, सुनिश्चित तथा सीधा होगा | इस श्लोक का योगयुक्त शब्द विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है | जो योग में स्थिर है, वह अपनी सभी गतिविधियों में निरन्तर कृष्णभावनामृत में रत रहता है | श्री रूप गोस्वामी का उपदेश है – अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः – मनुष्य को सांसारिक कार्यों से अनासक्त रहकर कृष्णभावनामृत में सब कुछ करना चाहिए | इस विधि से, जिसे युक्तवैराग्य कहते हैं, मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है | अतएव भक्त कभी इन वर्णनों से विचलित नहीं होता, क्योंकि वह जानता रहता है कि भक्ति के कारण भगवद्धाम का उसका प्रयाण सुनिश्चित है |
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