वेदाबेस​

श्लोक 8 . 22

पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्य‍ा लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥ २२ ॥

puruṣaḥ — the Supreme Personality; saḥ — He; paraḥ — the Supreme, than whom no one is greater; pārtha — O son of Pṛthā; bhaktyā — by devotional service; labhyaḥ — can be achieved; tu — but; ananyayā — unalloyed, undeviating; yasya — whom; antaḥ-sthāni — within; bhūtāni — all of this material manifestation; yena — by whom; sarvam — all; idam — whatever we can see; tatam — is pervaded.

भावार्थ

जिसे वेदान्ती अप्रकट और अविनाशी बताते हैं, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परमधाम है |

तात्पर्य

यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि जिस परमधाम से फिर लौटना नहीं होता, वह परमपुरुष कृष्ण का धाम है | ब्रह्मसंहिता में इस परमधाम को आनन्दचिन्मय रस कहा गया है जो ऐसा स्थान है जहाँ सभी वस्तुएँ परं आनन्द से पूर्ण हैं | जितनी भी विविधता प्रकट होती है वह सब इसी परमानन्द का गुण है – वहाँ कुछ भी भौतिक नहीं है | यह विविधता भगवान् के विस्तार के साथ हो विस्तृत होती जाती है, क्योंकि वहाँ की सारी अभिव्यक्ति पराशक्ति के कारण है, जैसा कि सातवें अध्याय में बताया गया है | जहाँ तक इस भौतिक जगत् का प्रश्न है, यद्यपि भगवान् अपने धाम में ही सदैव रहते हैं, तो भी वे अपनी भौतिक शक्ति ?(माया) द्वारा सर्वव्याप्त हैं | इस प्रकार वे अपनी परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वत्र – भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ब्रह्माण्डों में – उपस्थित रहते हैं | यस्यान्तःस्थानि का अर्थ है कि प्रत्येक वस्तु उनमें या उनकी परा या अपरा शाकी में निहित है | इन्हीं दोनों शक्तियों के द्वारा भगवान् सर्वव्यापी हैं |

कृष्ण के परमधाम में या असंख्य वैकुण्ठ लोकों में भक्ति के द्वारा ही प्रवेश सम्भव है, जैसा कि भक्त्या शब्द द्वारा सूचित होता है | किसी अन्य विधि से परमधाम की प्राप्ति सम्भव नहीं है | वेदों में (गोपाल-तापनी उपनिषद् ३.२) भी परमधाम तथा भगवान् का वर्णन मिलता है | एको वशी सर्वगः कृष्णः | उस धाम में केवल एक भगवान् रहता है, जिसका नाम कृष्ण है | वह अत्यन्त दयालु विग्रह है और एक रूप में स्थित होकर भी वह अपने को लाखों स्वांशों में विस्तृत करता रहता है | वेदों में भगवान् की उपमा उस शान्त वृक्ष से दी गई है, जिसमें नाना प्रकार के फूल तथा फल लगे हैं और जिसकी पत्तियाँ निरन्तर बदलती रहती हैं | वैकुण्ठ लोक की अध्यक्षता करने वाले भगवान् के स्वांश चतुर्भुजी हैं और विभिन्न नामों से विख्यात है – पुरुषोत्तम, त्रिविक्रम, केशव, माधव, अनिरुद्ध, हृषीकेश, संकर्षण, प्रद्युम्न, श्रीधर, दामोदर, जनार्दन, नारायण, वामन, पद्मनाभ आदि |

ब्रह्मसंहिता में (५.३७) भी पुष्टि हुई है कि यद्यपि भगवान् निरन्तर परमधाम गोलोक वृन्दावन में रहते हैं, किन्तु वे सर्वव्यापी हैं ताकि सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहे (गोलोक एव निवसत्यखिलात्मभूतः) | वेदों में (श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् ६.८) कहा गया है – परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते | स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च – उनकी शक्तियाँ इतनी व्यापक हैं कि परमेश्र्वर के दूरस्थ होते हुए भी दृश्यजगत में बिना किसी त्रुटि के सब कुछ सुचारू रूप से संचालित करती रहती हैं |

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