वेदाबेस​

श्लोक 7 . 30

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस: ॥ ३० ॥

sa-adhibhūta — and the governing principle of the material manifestation; adhidaivam — governing all the demigods; mām — Me; sa-adhiyajñam — and governing all sacrifices; ca — also; ye — those who; viduḥ — know; prayāṇa — of death; kāle — at the time; api — even; ca — and; mām — Me; te — they; viduḥ — know; yukta-cetasaḥ — their minds engaged in Me.

भावार्थ

जो मुझ परमेश्र्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत् का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान् को जान और समझ सकते हैं |

तात्पर्य

कृष्णभावनामृत में कर्म करने वाले मनुष्य कभी भी भगवान् को पूर्णतया समझने के पथ से विचलित नहीं होते | कृष्णभावनामृत के दिव्य सान्निध्य से मनुष्य यह समझ सकता है कि भगवान् किस तरह भौतिक जगत् तथा देवताओं तक के नियामक हैं | धीरे-धीरे ऐसी दिव्य संगति से मनुष्य का भगवान् में विश्र्वास बढ़ता है, अतः मृत्यु के समय ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण को कभी भुला नहीं पाता | अतएव वह सहज ही भगवद्धाम गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है |

यह सातवाँ अध्याय विशेष रूप से बताता है कि कोई किस प्रकार से पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो सकता है | कृष्णभावना का शुभारम्भ ऐसे व्यक्तियों के सान्निध्य से होता है जो कृष्णभावनाभावित होते हैं | ऐसा सान्निध्य आध्यात्मिक होता है और इससे मनुष्य प्रत्यक्ष भगवान् के संसर्ग में आता है और भगवत्कृपा से वह कृष्ण को भगवान् समझ सकता है | साथ ही वह जीव के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है और यह समझ सकता है कि किस प्रकार कृष्ण को भुलाने से वह प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध हुआ है | वह यह भी समझ सकता है कि यह मनुष्य-जीवन कृष्णभावनामृत को पुनः प्राप्त करने के लिए मिला है, अतः इसका सदुपयोग परमेश्र्वर की अहैतुकी कृपा प्राप्त करने के लिए करना चाहिए |

इस अध्याय में जिन अनेक विषयों की विवेचना की गई है वे हैं – दुख में पड़ा हुआ मनुष्य, जिज्ञासु मानव, अभावग्रस्त मानव, ब्रह्म ज्ञान, परमात्मा ज्ञान, जन्म, मृत्यु तथा रोग से मुक्ति एवं परमेश्र्वर की पूजा | किन्तु जो व्यक्ति वास्तव में कृष्णभावनामृत को प्राप्त है, वह विभिन्न विधियों की परवाह नहीं करता | वह सीधे कृष्णभावनामृत में प्रवृत्त होता है और उसी से भगवान् कृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करता है | ऐसी अवस्था में वह शुद्धभक्ति में परमेश्र्वर के श्रवण तथा गुणगान में आनन्द पता है | उसे पूर्णविश्र्वास रहता है कि ऐसा करने से उसके सारे उद्देश्यों की पूर्ति होगी | ऐसी दृढ़ श्रद्धा दृढव्रत कहलाती है और यह भक्तियोग या दिव्य प्रेमाभक्ति की शुरुआत होती है | समस्त शास्त्रों का भी यही मत है | भगवद्गीता का यह सातवाँ अध्याय इसी निश्चय का सारांश है |

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय “भगवद्ज्ञान” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ |

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