वेदाबेस​

श्लोक 7 . 18

उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥ १८ ॥

udārāḥ — magnanimous; sarve — all; eva — certainly; ete — these; jñānī — one who is in knowledge; tu — but; ātmā eva — just like Myself; me — My; matam — opinion; āsthitaḥ — situated; saḥ — he; hi — certainly; yukta-ātmā — engaged in devotional service; mām — in Me; eva — certainly; anuttamām — the highest; gatim — destination.

भावार्थ

निस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यक्ति हैं, किन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हूँ | वह मेरी दिव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सर्वोच्च उद्देश्य को निश्चित रूप से प्राप्त करता है |

तात्पर्य

ऐसा नहीं है कि जो कम ज्ञानी भक्त है वे भगवान् को प्रिय नहीं हैं | भगवान् कहते हैं कि सभी उदारचेता हैं क्योंकि चाहे जो भी भगवान् के पास किसी भी उद्देश्य से आये वह महात्मा कहलाता है | जो भक्त भक्ति के बदले कुछ लाभ चाहते हैं उन्हें भगवान् स्वीकार करते हैं क्योंकि इससे स्नेह का विनिमय होता है | वे स्नेहवश भगवान् से लाभ की याचना करते हैं और जब उन्हें वह प्राप्त हो जाता है तो वे इतने प्रसन्न होते हैं कि वे भगवद्भक्ति करने लगते हैं | किन्तु ज्ञानी भक्त भगवान् को इसलिए प्रिय है कि उसका उद्देश्य प्रेम तथा भक्ति से परमेश्र्वर की सेवा करना होता है | ऐसा भक्त भगवान् की सेवा किये बिना क्षण भर भी नहीं रह सकता | इसी प्रकार परमेश्र्वर अपने भक्त को बहुत चाहते हैं और वे उससे विलग नहीं हो पाते |

श्रीमद्भागवत में (१.४.६८) भगवान् कहते हैं-

sādhavo hṛdayaṁ mahyaṁ
sādhūnāṁ hṛdayaṁ tv aham
mad-anyat te na jānanti
nāhaṁ tebhyo manāg api
”भक्तगण सदैव मेरे हृदय में वास करते हैं और मैं भक्तों के हृदयों में वास करता हूँ | भक्त मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानता और मैं भी भक्त को कभी नहीं भूलता | मेरे तथा शुद्ध भक्तों के बीच घनिष्ट सम्बन्ध रहता है | ज्ञानी शुद्धभक्त कभी भी अध्यात्मिक सम्पर्क से दूर नहीं होते, अतः वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं |”

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