वेदाबेस​

श्लोक 6 . 33

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥ ३३ ॥

arjunaḥ uvāca — Arjuna said; yaḥ ayam — this system; yogaḥ — mysticism; tvayā — by You; proktaḥ — described; sāmyena — generally; madhu-sūdana — O killer of the demon Madhu; etasya — of this; aham — I; na — do not; paśyāmi — see; cañcalatvāt — due to being restless; sthitim — situation; sthirām — stable.

भावार्थ

अर्जुन ने कहा – हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, वह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है |

तात्पर्य

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पूर्ण योगी होता है | वह अपने व्यक्तिगत अनुभव से प्रत्येक प्राणी के सुख तथा दुःख से अवगत होता है | जीव के दुख का कारण ईश्र्वर से अपने सम्बन्ध का विस्मरण होना है | सुख का करण कृष्ण को मनुष्यों के समस्त कार्यों का परम भोक्ता, समस्त भूमि तथा लोकों का स्वामी एवं समस्त जीवों का परम हितैषी मित्र समझना है | पूर्ण योगी यह जानता है कि भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित बद्धजीव कृष्ण से अपने सम्बन्ध को भूल जाने के करण तीन प्रकार के तापों(दुखों) को भोगता है; और चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सुखी होता है इसीलिए वह कृष्णज्ञान को सर्वत्र वितरित कर देना चाहता है | चूँकि पूर्णयोगी कृष्णभावनाभावित बनने के महत्त्व को घोषित करता चलता है; अतः वह विश्र्व का सर्वश्रेष्ठ उपकारी एवं भगवान् का प्रियतम सेवक है | न च तस्मान् मनुष्येषु कश्र्चिन्मे प्रियकृत्तमः (भगवद्गीता १८.६९) | दूसरे शब्दों में, भगवद्भक्त सदैव जीवों के कल्याण को देखता है और इस तरह वह प्रत्येक प्राणी का सखा होता है | वह सर्वश्रेष्ठ योगी है क्योंकि वह स्वान्तःसुखाय सिद्धि नहीं चाहता, अपितु अन्यों के लिए भी चाहता है | वह अपने मित्र जीवों से द्वेष नहीं करता | यही है वह अन्तर जो एक भगवद्भक्त तथा आत्मोन्नति में ही रूचि वाले योगी में होता है | जो योगी पूर्णरूप से ध्यान धरने के लिए एकान्त स्थान में चला जाता है, वह उतना पूर्ण नहीं होता जितना कि वह भक्त जो प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित बनाने का प्रयास करता रहता है |

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