श्लोक 6 . 31
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥ ३१ ॥
sarva-bhūta-sthitam — situated in everyone’s heart; yaḥ — he who; mām — Me; bhajati — serves in devotional service; ekatvam — in oneness; āsthitaḥ — situated; sarvathā — in all respects; vartamānaḥ — being situated; api — in spite of; saḥ — he; yogī — the transcendentalist; mayi — in Me; vartate — remains.
भावार्थ
जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है |
तात्पर्य
जो योगी परमात्मा का ध्यान करता है, वह अपने अन्तःकरण में चतुर्भुज विष्णु का दर्शन कृष्ण के पूर्णरूप में शंख, चक्र, गदा तथा कमलपुष्प धारण किये करता है | योगी को यह जानना चाहिए कि विष्णु कृष्ण से भिन्न नहीं है | परमात्मा रूप में कृष्ण जन-जन के हृदय में स्थित हैं | यही नहीं, असंख्य जीवों के हृदयों में स्थित असंख्य परमात्माओं में कोई अन्तर नहीं है | न ही कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर व्यस्त व्यक्ति तथा परमात्मा के ध्यान में निरत एक पूर्णयोगी के बीच कोई अन्तर है | कृष्णभावनामृत में योगी सदैव कृष्ण में ही स्थित रहता है भले हि भौतिक जगत् में वह विभिन्न कार्यों में व्यस्त क्यों न हो | इसकी पुष्टि श्रील रूप गोस्वामी कृत भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.२.१८७) हुई है – निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्तः स उच्यते | कृष्णभावनामृत में रत रहने वाला भगवद्भक्त स्वतः मुक्त हो जाता है | नारद पञ्चरात्र में इसकी पुष्टि इस प्रकार हुई है –
दिक्कालाद्यनवच्छिन्ने कृष्णे चेतो विधाय च | तन्मयो भवति क्षिप्रं जीवो ब्रह्मणि योजयेत् ||
“देश-काल से अतीत तथा सर्वव्यापी श्रीकृष्णके दिव्यरूप में ध्यान एकाग्र करने से मनुष्य कृष्ण के चिन्तन में तन्मय हो जाता है और तब उनके दिव्य सान्निध्य की सुखी अवस्था को प्राप्त होता है |”
योगाभ्यास में समाधि की सर्वोच्च अवस्था कृष्णभावनामृत है | केवल इस ज्ञान से कि कृष्ण प्रत्येक जन के हृदय में परमात्मा रूप में उपस्थित हैं योगी निर्दोष हो जाता है | वेदों में (गोपालतापनी उपनिषद् १.२१) भगवान् की इस अचिन्त्य शक्ति की पुष्टि इस प्रकार होती है – एकोऽपि सन्बहुधा योऽवभाति – “यद्यपि भगवान् एक है, किन्तु वह जितने सारे हृदय हैं उनमें उपस्थित रहता है |”इसी प्रकार स्मृति शास्त्र का कथन है –
eka eva paro viṣṇuḥ
sarva-vyāpī na saṁśayaḥ
aiśvaryād rūpam ekaṁ ca
sūrya-vat bahudheyate
“विष्णु एक हैं फिर भी वे सर्वव्यापी हैं | एक रूप होते हुए भी वे अपनी अचिन्त्य शक्ति से सर्वत्र उपस्थित रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य एक ही समय अनेक स्थानों में दिखता है |”
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