श्लोक 6 . 25
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ २५ ॥
śanaiḥ — gradually; śanaiḥ — step by step; uparamet — one should hold back; buddhyā — by intelligence; dhṛti-gṛhītayā — carried by conviction; ātma-saṁstham — placed in transcendence; manaḥ — mind; kṛtvā — making; na — not; kiñcit — anything else; api — even; cintayet — should think of.
भावार्थ
धीरे-धीरे, क्रमशः पूर्ण विश्र्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए |
तात्पर्य
समुचित विश्र्वास तथा बुद्धि के द्वारा मनुष्य को धीरे-धीरे सारे इन्द्रियकर्म करने बन्द कर देना चाहिए | यह प्रत्याहार कहलाता है | मन को विश्र्वास, ध्यान तथा इन्द्रिय-निवृत्ति द्वारा वश में करते हुए समाधि में स्थिर करना चाहिए | उस समय देहात्मबुद्धि में अनुरक्त होने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती | दुसरे शब्दों में, जब तक इस शरीर का अस्तित्व है तब तक मनुष्य पदार्थ में लगा रहता है, किन्तु उसे इन्द्रियतृप्ति के विषय में नहीं सोचना चाहिए | उसे परमात्मा के आनन्द के अतिरिक्त किसी अन्य आनन्द का चिन्तन नहीं करना चाहिए | कृष्णभावनामृत का अभ्यास करने से यह अवस्था सहज ही प्राप्त की जा सकती है |
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