वेदाबेस​

श्लोक 6 . 18

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निस्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥ १८ ॥

यदा – जब; विनियतम् – विशेष रूप से अनुशासित; चित्तम् – मन तथा उसके कार्य; आत्मनि – अध्यात्म में; एव – निश्चय हि; अवतिष्ठते – स्थित हो जाता है; निस्पृहः – आकांक्षारहित; सर्व – सभी प्रकार की; कामेभ्यः – भौतिक इन्द्रियतृप्ति से; युक्तः – योग में स्थित; इति – इस प्रकार; उच्यते – कहलाता है; तदा – उस समय |

भावार्थ

जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपने मानसिक कार्यकलापों को वश में कर लेता है और अध्यात्म में स्थित हो जाता है अर्थात् समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है, तब वह योग में सुस्थिर कहा जाता है |

तात्पर्य

साधारण मनुष्य की तुलना में योगी के कार्यों में यह विशेषता होती है कि वह समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त रहता है जिनमें मैथुन प्रमुख है | एक पूर्णयोगी अपने मानसिक कार्यों में इतना अनुशासित होता है कि उसे कोई भी भौतिक इच्छा विचलित नहीं कर सकती | यह सिद्ध अवस्था कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों द्वारा स्वतः प्राप्त हो जाती है, जैसा कि श्रीमद्भागवत में (९.४.१८-२०) कहा गया है –

sa vai manaḥ kṛṣṇa-padāravindayor
vacāṁsi vaikuṇṭha-guṇānuvarṇane
karau harer mandira-mārjanādiṣu
śrutiṁ cakārācyuta-sat-kathodaye
 
mukunda-liṅgālaya-darśane dṛśau
tad-bhṛtya-gātra-sparśe ’ṅga-saṅgamam
ghrāṇaṁ ca tat-pāda-saroja-saurabhe
śrīmat-tulasyā rasanāṁ tad-arpite
 
pādau hareḥ kṣetra-padānusarpaṇe
śiro hṛṣīkeśa-padābhivandane
kāmaṁ ca dāsye na tu kāma-kāmyayā
yathottama-śloka-janāśrayā ratiḥ

निर्विशेषवादियों केलिए यह दिव्य व्यवस्था अनिर्वचनीय हो सकती है, किन्तु कृष्णभावनाभावितव्यक्ति के लिए यः अत्यन्त सुगम एवं व्यावहारिक है, जैसा कि महाराज अम्बरीष की उपरिवर्णित जीवनचर्या से स्पष्ट हो जाता है | जब तक निरन्तर स्परण द्वारा भगवान् के चरणकमलों में मन को स्थिर नहीं कर लिया जाता, तब तक ऐसे दिव्यकार्य व्यावहारिक नहीं बन पाते | अतः भगवान् की भक्ति में इन विहित कार्यों को अर्चन् कहते हैं जिसका अर्थ है – समस्त इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना | इन्द्रियों तथा मन को कुछ ण कुछ कार्य चाहिए | कोरा निग्रह व्यावहारिक नहीं है | अतः सामान्य लोगों के लिए – विशेषकर जो लोग संन्यास आश्रम में नहीं है – ऊपर वर्णित इन्द्रियों तथा मन का दिव्याकार्य हि दिव्य सफलता की सही विधि है, जिसे भगवद्गीता में युक्त कहा गया है |

निर्विशेषवादियों केलिए यह दिव्य व्यवस्था अनिर्वचनीय हो सकती है, किन्तु कृष्णभावनाभावितव्यक्ति के लिए यः अत्यन्त सुगम एवं व्यावहारिक है, जैसा कि महाराज अम्बरीष की उपरिवर्णित जीवनचर्या से स्पष्ट हो जाता है | जब तक निरन्तर स्परण द्वारा भगवान् के चरणकमलों में मन को स्थिर नहीं कर लिया जाता, तब तक ऐसे दिव्यकार्य व्यावहारिक नहीं बन पाते | अतः भगवान् की भक्ति में इन विहित कार्यों को अर्चन् कहते हैं जिसका अर्थ है – समस्त इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना | इन्द्रियों तथा मन को कुछ ण कुछ कार्य चाहिए | कोरा निग्रह व्यावहारिक नहीं है | अतः सामान्य लोगों के लिए – विशेषकर जो लोग संन्यास आश्रम में नहीं है – ऊपर वर्णित इन्द्रियों तथा मन का दिव्याकार्य हि दिव्य सफलता की सही विधि है, जिसे भगवद्गीता में युक्त कहा गया है |

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