वेदाबेस​

श्लोक 6 .10

योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह: ॥ १० ॥

योगी – योगी; युञ्जित – कृष्णचेतना में केन्द्रित करे; सततम् – निरन्तर; आत्मानम् – स्वयं को (मन, शरीर तथा आत्मा से); रहसि – एकान्त स्थान में; स्थितः – स्थित होकर; एकाकी – अकेले; यात-चित्त-आत्मा – मन में सदैव सचेत; निराशीः – किसी अन्य वस्तु से आकृष्ट हुए बिना; अपरिग्रहः – स्वामित्व की भावना से रहित, संग्रहभाव से मुक्त |

भावार्थ

योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्र्वर में लगाए, एकान्त स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे | उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव से मुक्त होना चाहिए |

तात्पर्य

कृष्ण की अनुभूति ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान् के विभिन्न रूपों में होती है | संक्षेप में, कृष्णभावनामृत का अर्थ है – भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर प्रवृत्त रहना | किन्तु जो लोग निराकार ब्रह्म अथवा अन्तर्यामी परमात्मा के प्रति आसक्त होते हैं, वे भी आंशिक रूप से कृष्णभावनाभावित हैं क्योंकि निराकार ब्रह्म कृष्ण की आध्यात्मिक किरण है और परमात्मा कृष्ण का सर्वव्यापी आंशिक विस्तार होता है | इस प्रकार निर्विशेषवादी तथा ध्यानयोगी भी अपरोक्ष रूप से कृष्णभावनाभावित होते हैं | प्रत्यक्ष कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सर्वोच्च योगी होता है क्योंकि ऐसा भक्त जानता है कि ब्रह्म तथा परमात्मा क्या हैं | उसका परमसत्य विषयक ज्ञान पूर्ण होता है, जबकि निर्विशेषवादी तथा ध्यानयोगी अपूर्ण रूप में कृष्णभावनाभावित होते हैं |

इतने पर भी इन सबों को अपने-अपने कार्यों में निरन्तर लगे रहने का आदेश दिया जाता है, जिससे वे देर-सवेर परं सिद्धि प्राप्त कर सकें | योगी का पहला कर्तव्य है कि वह कृष्ण पर अपना ध्यान सदैव एकाग्र रखे | उसे सदैव कृष्ण का चिन्तन करना चाहिए और एक क्षण के लिए भी उन्हें नहीं भुलाना चाहिए | परमेश्र्वर में मन की एकाग्रता ही समाधि कहलाती है | मन को एकाग्र करने के लिए सदैव एकान्तवास करना चाहिए और बाहरी उपद्रवों से बचना चाहिए | योगी को चाहिए कि वह अनुकूल परिस्थियों को ग्रहण करे और प्रतिकूल परिस्थितियों को त्याग दे, जिससे उसकी अनुभूति पर कोई प्रभाव न पड़े | पूर्ण संकल्प कर लेने पर उसे उन व्यर्थ की वस्तुओं के पीछे नहीं पड़ना चाहिए जो परिग्रह भाव में उसे फँसा लें |

ये सारी सिद्धियाँ तथा सावधानियाँ तभी पूर्णरूपेण कार्यान्वित हो सकती हैं जब मनुष्य प्रत्यक्षतः कृष्णभावनाभावित हो क्योंकि साक्षात् कृष्णभावनामृत का अर्थ है – आत्मोसर्ग जिसमें संग्रहभाव (परिग्रह) के लिए लेशमात्र स्थान नहीं होता | श्रील रूपगोस्वामी कृष्णभावनामृत का लक्षण इस प्रकार देते हैं –

anāsaktasya viṣayān, yathārham upayuñjataḥ
nirbandhaḥ kṛṣṇa-sambandhe, yuktaṁ vairāgyam ucyate
 
प्रापञ्चिकतया बुद्धया
हरि समबन्धिवस्तुनः |
मुमुक्षुभिः परित्यागो
वैराग्यं फल्गु कथ्यते ||

“जब मनुष्य किसी वस्तु के प्रति आसक्त ण रहते हुए कृष्ण से सम्बन्धित हर वस्तु को स्वीकार कर लेता है, तभी वह परिग्रहत्व से ऊपर स्थित रहता है | दूसरी ओर, जो व्यक्ति कृष्ण से सम्बन्धित वस्तु को बिना जाने त्याग देता है उसका वैराग्य पूर्ण नहीं होता |” (भक्तिरसामृत सिन्धु २.२५५ – २५६) |

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भलीभाँति जानता रहता है कि प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण की है, फलस्वरूप वह सभी प्रकार के परिग्रहभाव से मुक्त रहता है | इस प्रकार वह अपने लिए किसी वस्तु की लालसा नहीं करता | वह जानता है कि किस प्रकार कृष्णभावनामृत के अनुरूप वस्तुओं को स्वीकार किया जाता है और कृष्णभावनामृत के प्रतिकूल वस्तुओं का परित्याग कर दिया जाता है |वह सदैव भौतिक वस्तुओं से दूर रहता है, क्योंकि वह दिव्य होता है और कृष्णभावनामृत से रहित व्यक्तियों से किसी प्रकार का सरोकार न रखने के करण सदा अकेला रहता है | अतः कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति पूर्णयोगी होता है |

बेस- पूरे विश्व में वैदिक संस्कृति सिखाने का लक्ष्य

©2020 BACE-भक्तिवेदांत सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्था

www.vedabace.com यह वैदिक ज्ञान की विस्तृत जानकारी है जो दैनिक साधना, अध्ययन और संशोधन में उपयोगी हो सकती है।

अधिक जानकारी के लिए कृपया संपर्क करें - info@vedabace.com