वेदाबेस​

श्लोक 5 . 4

सां‍ख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता: ।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥ ४ ॥

sāṅkhya — analytical study of the material world; yogau — work in devotional service; pṛthak — different; bālāḥ — the less intelligent; pravadanti — say; na — never; paṇḍitāḥ — the learned; ekam — in one; api — even; āsthitaḥ — being situated; samyak — complete; ubhayoḥ — of both; vindate — enjoys; phalam — the result.

भावार्थ

अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |

तात्पर्य

भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है | भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं | भगवान् की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है | एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है | सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूंढता है और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है | अतः मूलतः इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है | जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है |

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