श्लोक 5 . 16
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥ १६ ॥
ज्ञानेन – ज्ञान से; तु – लेकिन; तत् – वह; अज्ञानम् – अविद्या; येषाम् – जिनका; नाशिताम् – नष्ट हो जाती है; आत्मनः – जीव का; तेषाम् – उनके; आदित्य-वत् – उदीयमान सूर्य के समान; ज्ञानम् – ज्ञान को; प्रकाशयति – प्रकट करता है; तत् परम् – कृष्णभावनामृत को |
भावार्थ
किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं |
तात्पर्य
जो लोग कृष्ण को भूल गये हैं वे निश्चित रूप से मोहग्रस्त होते हैं, किन्तु जो कृष्णभावनाभावित हैं वे नहीं होते | भगवद्गीता में कहा गया है – सर्वं ज्ञानप्लवेन, ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि तथा न हि ज्ञानेन सदृशम् | ज्ञान सदैव सम्माननीय है | और वह ज्ञान क्या है? श्रीकृष्ण के प्रति आत्मसमर्पण करने पर ही पूर्णज्ञान प्राप्त होता है, जैसा कि गीता में (७.१९) ही कहा गया है – बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते | अनेकानेक जन्म बीत जाने पर ही पूर्णज्ञान प्राप्त करके मनुष्य कृष्ण की शरण में जाता है अथवा जब उसे कृष्णभावनामृत प्राप्त होता है तो उसे सब कुछ प्रकट होने लगता है, जिस प्रकार सूर्योदय होने पर सारी वस्तुएँ दिखने लगती हैं | जीव नाना प्रकार से मोहग्रस्त होता है | उदाहरणार्थ, जब वह अपने को ईश्र्वर मानने लगता है, तो वह अविद्या के पाश में जा गिरता है | यदि जीव ईश्र्वर है तो वह अविद्या से कैसे मोहग्रस्त हो सकता है? क्या ईश्र्वर अविद्या से मोहग्रस्त होता है? यदि ऐसा हो सकता है, तो फिर अविद्या या शैतान ईश्र्वर से बड़ा है | वास्तविक ज्ञान उसी से प्राप्त हो सकता है जो पूर्णतः कृष्णभावनाभावित है | अतः ऐसे ही प्रामाणिक गुरु की खोज करनी होती है और उसी से सीखना होता है कि कृष्णभावनामृत क्या है, क्योंकि कृष्णभावनामृत से सारी अविद्या उसी प्रकार दूर हो जाती है, जिस प्रकार सूर्य से अंधकार दूर होता है | भले ही किसी व्यक्ति को इसका पुरा ज्ञान हो कि वह शरीर नहीं अपितु इससे परे है, तो भी हो सकता है कि वह आत्मा तथा परमात्मा में अन्तर न कर पाए | किन्तु यदि वह पूर्ण प्रामाणिक कृष्णभावनाभावित गुरु की शरण ग्रहण करता है तो वह सब कुछ जान सकता है | ईश्र्वर के प्रतिनिधि से भेंट होने पर ही ईश्र्वर तथा ईश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध को सही-सही जाना जा सकता है | ईश्र्वर का प्रतिनिधि कभी भी अपने आपको ईश्र्वर नहीं कहता, यद्यपि उसका सम्मान ईश्र्वर की ही भाँति किया जाता है, क्योंकि उसे ईश्र्वर का ज्ञान होता है | मनुष्य को ईश्र्वर और जीव के अन्तर को समझना होता है | अतएव भगवान् कृष्ण ने द्वितीय अध्याय में (२.१२) यह कहा है कि प्रत्येक जीव व्यष्टि है और भगवान् भी व्यष्टि हैं | ये सब भूतकाल में व्यष्टि थे, सम्प्रति भी व्यष्टि हैं और भविष्य में मुक्त होने पर भी व्यष्टि बने रहेंगे | रात्रि के समय अंधकार में हमें प्रत्येक वस्तु एकसी दिखती है, किन्तु दिन में सूर्य के उदय पर सारी वस्तुएँ अपने-अपने वास्तविक स्वरूप में दिखती हैं | आध्यात्मिक जीवन में व्यष्टि की पहचान ही वास्तविक ज्ञान है |
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