श्लोक 3 . 10
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ १० ॥
सह – के साथ; यज्ञाः – यज्ञों; प्रजाः – सन्ततियों; सृष्ट्वा – रच कर; पुरा – प्राचीन काल में; उवाच – कहा; प्रजापतिः – जीवों के स्वामी ने; अनेन – इससे; प्रसविष्यध्वम् – अधिकाधिक समृद्ध होओ; एषः – यह; वः – तुम्हारा; अस्तु – होए; इष्ट – समस्त वांछित वस्तुओं का; काम-धुक् – प्रदाता |
भावार्थ
सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी (प्रजापति) ने विष्णु के लिए यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं की सन्ततियों को रचा और उनसे कहा, “तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुम्हें सुखपूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो सकेंगी |”
तात्पर्य
प्राणियों के स्वामी (विष्णु) द्वारा भौतिक सृष्टि की रचना बद्धजीवों के लिए भगवद्धाम वापस जाने का सुअवसर है | इस सृष्टि के सारे जिव प्रकृति द्वारा बद्ध हैं क्योंकि उन्होंने श्रीभगवान् विष्णु या कृष्ण के साथ सम्बन्ध को भुला दिया है | इस शाश्र्वत सम्बन्ध को समझने में वैदिक नियम हमारी सहायता के लिए हैं, जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है – वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यः | भगवान् का कथन है कि वेदों का उद्देश्य मुझे समझना है | वैदिक स्तुतियों में कहा गया है – पतिं विश्र्वस्यात्मेश्र्वरम् | अतः जीवों के स्वामी (प्रजापति) श्रीभगवान् विष्णु हैं | श्रीमद्भागवत में भी (२.४.२०) श्रील शुकदेव गोस्वामी ने भगवान् को अनेक रूपों में पति कहा है –
śriyaḥ patir yajña-patiḥ prajā-patir
dhiyāṁ patir loka-patir dharā-patiḥ
patir gatiś cāndhaka-vṛṣṇi-sātvatāṁ
prasīdatāṁ me bhagavān satāṁ patiḥ
प्रजापति तो भगवान् विष्णु हैं और वे समस्त प्राणियों के, समस्त लोकों के तथा सुन्दरता के स्वामी (पति) हैं और हर एक के त्राता हैं | भगवान् ने इस भौतिक जगत् को इसीलिए रचा कि बद्धजीव यह सीख सकें कि वे विष्णु को प्रसन्न करने के लिए किस प्रकार यज्ञ करें जिससे वे इस जगत् में चिन्तारहित होकर सुखपूर्वक रह सकें तथा इस भौतिक देह का अन्त होने पर भगवद्धाम को जा सकें | बद्धजीव के लिए ही यः सम्पूर्ण कार्यक्रम है | यज्ञ करने से बद्धजीव क्रमशः कृष्णभावनाभावित होते हैं और सभी प्रकार से देवतुल्य बनते हैं | कलियुग में वैदिक शास्त्रों ने संकीर्तन-यज्ञ (भगवान् के नामों का कीर्तन) का विधान किया है और इस दिव्य विधि का प्रवर्तन चैतन्य महाप्रभु द्वारा इस युग के समस्त लोगों के उद्धार के लिए किया गया | संकीर्तन-यज्ञ तथा कृष्णभावनामृत में अच्छा तालमेल है | श्री मद् भागवद (११.५.३२) में संकीर्तन-यज्ञ के विशेष प्रसंग में, भगवान् कृष्ण का अपने भक्तरूप (चैतन्य महाप्रभु रूप) में निम्न प्रकार से उल्लेख हुआ है –
kṛṣṇa-varṇaṁ tviṣākṛṣṇaṁ
sāṅgopāṅgāstra-pārṣadam
yajñaiḥ saṅkīrtana-prāyair
yajanti hi su-medhasaḥ
“इस कलियुग में जो लोग पर्याप्त बुद्धिमान हैं वे भगवान् की उनके पार्षदों सहित संकीर्तन-यज्ञ द्वारा पूजा करेंगे |” वेदों में वर्णित अन्य यज्ञों को इस कलियुग में कर पाना सहज नहीं, किन्तु संकीर्तन-यज्ञ सुगम है और सभी दृष्टि से अलौकिक है, जैसा कि भगवद्गीता में भी (९.१४) संस्तुति की गई है |
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