वेदाबेस​

श्लोक 2 . 5

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुज्ज‍ीय भोगान्‍रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥

gurūn — the superiors; ahatvā — not killing; hi — certainly; mahā-anubhāvān — great souls; śreyaḥ — it is better; bhoktum — to enjoy life; bhaikṣyam — by begging; अपि — even; iha — in this life; loke — in this world; hatvā — killing; artha — gain; kāmān — desiring; tu — but; gurūn — superiors; iha — in this world; eva — certainly; bhuñjīya — one has to enjoy; bhogān — enjoyable things; rudhira — blood; pradigdhān — tainted with.

भावार्थ

ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है | भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु अनके रक्त से सनी होगी

तात्पर्य

शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निंद्य कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो, त्याज्य है | दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे, यद्यपि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था | ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे | किन्तु अर्जुन सोचता है कि इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा – रक्त से सने अवशेषों का भोग |

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