वेदाबेस​

श्लोक 18.6

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥ ६ ॥

etāni — all these; api — certainly; tu — but; karmāṇi — activities; saṅgam — association; tyaktvā — renouncing; phalāni — results; ca — also; kartavyāni — should be done as duty; iti — thus; me — My; pārtha — O son of Pṛthā; niścitam — definite; matam — opinion; uttamam — the best.

भावार्थ

इन सारे कार्यों को किसी प्रकार की आसक्ति या फल की आशा के बिना सम्पन्न करना चाहिए । हे पृथापुत्र! इन्हें कर्तव्य मानकर सम्पन्न किया जाना चाहिए । यही मेरा अन्तिम मत है ।

तात्पर्य

यद्यपि सारे यज्ञ शुद्ध करने वाले हैं, लेकिन मनुष्य को ऐसे कार्यों से किसी फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए । दूसरे शब्दों में, जीवन में जीतने सारे यज्ञ भौतिक उन्नति के लिए हैं, उनका परित्याग करना चाहिए । लेकिन जिन यज्ञों से मनुष्य का अस्तित्व शुद्ध हो और जो आध्यात्मिक स्तर तक उठाने वाले हों, उनको कभी बन्द नहीं करना चाहिए । जिस किसी वस्तु से कृष्णभावनामृत तक पहुँचा जा सके, उनको कभी भी बन्द नहीं करना चाहिए । श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है कि जिस कार्य से भगवद्भक्ति का लाभ हो, उसे स्वीकार करना चाहिए । यही धर्म की सर्वोच्च कसौटी है । भगवद्भक्त को ऐसे किसी भी कर्म, यज्ञ या दान को स्वीकार करना चाहिए, जो भगवद्भक्ति करने में सहायक हो ।

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