श्लोक 18.44
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ ४४ ॥
kṛṣi — plowing; go — of cows; rakṣya — protection; vāṇijyam — trade; vaiśya — of a vaiśya; karma — duty; svabhāva–jam — born of his own nature; paricaryā — service; ātmakam — consisting of; karma — duty; śūdrasya — of the śūdra; api — also; svabhāva–jam — born of his own nature.
भावार्थ
कृषि करना, गो रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं औरशूद्रों का कर्म श्रम तथा अन्यों की सेवा करना है |
बेस- पूरे विश्व में वैदिक संस्कृति सिखाने का लक्ष्य
©2020 BACE-भक्तिवेदांत सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्था
www.vedabace.com यह वैदिक ज्ञान की विस्तृत जानकारी है जो दैनिक साधना, अध्ययन और संशोधन में उपयोगी हो सकती है।
अधिक जानकारी के लिए कृपया संपर्क करें - info@vedabace.com