वेदाबेस​

श्लोक 18.12

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् ।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्न्यासिनां क्‍वचित् ॥ १२ ॥

अनिष्टम् - नरक ले जाने वाले; इष्टम् - स्वर्ग ले जाने वाले; मिश्रम् - मिश्रित; च -तथा; त्रि-विधम् - तीन प्रकार; कर्मणः - कर्म का; फलम् - फल; भवति - होता है; अत्यागिनाम् - त्याग न करने वालों को; प्रेत्य - मरने के बाद; न - नहीं; तु - लेकिन; संन्यासिनाम् - संन्यासी के लिए; क्वचित् - किसी समय, कभी ।

भावार्थ

जो त्यागी नहीं है, उसके लिए इच्छित(इष्ट), अनिच्छित (अनिष्ट) तथा मिश्रित - ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं । लेकिन जो संन्यासी है, उन्हें ऐसे फल का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता ।

तात्पर्य

जो कृष्णभावनामय व्यक्ति कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को जानते हुए कर्म करता है, वह सदैव मुक्त रहता है । अतएव उसे मृत्यु के पश्चात् अपने कर्म फलों का सुख-दुख नहीं भोगना पड़ता ।

बेस- पूरे विश्व में वैदिक संस्कृति सिखाने का लक्ष्य

©2020 BACE-भक्तिवेदांत सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्था

www.vedabace.com यह वैदिक ज्ञान की विस्तृत जानकारी है जो दैनिक साधना, अध्ययन और संशोधन में उपयोगी हो सकती है।

अधिक जानकारी के लिए कृपया संपर्क करें - info@vedabace.com