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श्लोक 17.20

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥ २० ॥

दतव्यम् - देने योग्य; इति - इस प्रकार; यत् - जो; दानम् - दान; दीयते - दिया जाता है; अनुपकारिणे - प्रत्युपकार की भावना के बिना; देशे - उचित स्थान में; काले - उचित समय में; च - भी;पात्रे - उपयुक्त व्यक्ति को; च - तथा; तत् - वह; दानम् - दान; सत्त्विकम् - सतो गुणी, सात्त्विक; स्मृतम् - माना जाता है ।

भावार्थ

जो दान कर्तव्य समझकर, किसी प्रत्युपकार की आशा के बिना, समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, वह सात्त्विक माना जाता है ।

तात्पर्य

वैदिक साहित्य में ऐसे व्यक्ति को दान देने की संस्तुति है, जो आध्यात्मिक कार्यों में लगा हो । अविचार पूर्ण ढंग से दान देने की संस्तुति नहीं है । आध्यात्मिक सिद्धि को सदैव ध्यान में रखा जाता है । अतएव किसी तीर्थ स्थान में,सूर्य या चन्द्रग्रहण के समय, मासान्त में या योग्य ब्राह्मण अथवा वैष्णव (भक्त) को, या मन्दिर में दान देने की संस्तुति है । बदले में किसी प्रकार की प्राप्ति की अभिलाषा न रखते हुए ऐसे दान किये जाने चाहिए । कभी-कभी निर्धन को दान करुणा वश दिया जाता है । लेकिन यदि निर्धन दान देने योग्य (पात्र) नहीं होता, तो उससे आध्यात्मिक प्रगति नहीं होती । दूसरे शब्दों में, वैदिक साहित्य में अविचार पूर्ण दान की संस्तुति नहीं है ।।

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