श्लोक 17.17
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै: ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७ ॥
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते ॥ १७ ॥
श्रद्धया - श्रद्धा समेत; परया - दिव्य; तप्तम् - किया गया; तपः - तप; तत् - वह; त्रि-विधम् - तीन प्रकार के; नरैः -मनुष्यों द्वारा; अफल-आकाङ्क्षिभिः - फल की इच्छा न करने वाले; युक्तैः - प्रवृत्त; सात्त्विकम् - सतोगुण में; परिचक्षते - कहा जाता है ।
भावार्थ
भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्र्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से सम्पन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्त्विक तपस्या कहलाती है ।
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