श्लोक 17.16
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥ १६ ॥
मनः-प्रसादः - मन की तुष्टि; सौम्यत्वम् - अन्यों के प्रति कपट भाव से रहित; मौनम् - गम्भीरता; आत्म - अपना; विनिग्रहः - नियन्त्रण, संयम; भाव - स्वभाव का; संशुद्धिः - शुद्धिकरण; इति - इस प्रकार; एतत् - यह; तपः - तपस्या; मानसम् - मन की; उच्यते - कही जाती है |
भावार्थ
तथा संतोष, सरलता, गम्भीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि - ये मन की तपस्याएँ हैं |
तात्पर्य
मन को संयमित बनाने का अर्थ है, उसे इन्द्रियतृप्ति से विलग करना | उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जिससे वह सदैव परोपकार के विषय में सोचे | मन के लिए सर्वोत्तम प्रशिक्षण विचारों की श्रेष्ठता है | मनुष्य को कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होना चाहिए और इन्द्रियभोग से सदैव बचना चाहिए | अपने स्वभाव को शुद्ध बनाना कृष्णभावनाभावित होना है | इन्द्रियभोग के विचारों से मन को अलग रख करके ही मन की तुष्टि प्राप्त की जा सकती है | हम इन्द्रियभोग के बारे में जितना सोचते हैं, उतना ही मन अतृप्त होता जाता है | इस वर्तमान युग में हम मन को व्यर्थ ही अनेक प्रकार के इन्द्रियतृप्ति के साधनों में लगाये रखते हैं, जिससे मन संतुष्ट नहीं हो पाता | अतएव सर्वश्रेष्ठ विधि यही है कि मन को वैदिक साहित्य की ओर मोड़ा जाय, क्योंकि यह संतोष प्रदान करने वाली कहानियों से भरा है - यथा पुराण तथा महाभारत | कोई भी इस ज्ञान का लाभ उठा कर शुद्ध हो सकता है | मन को छल-कपट से मुक्त होना चाहिए और मनुष्य को सबके कल्याण (हित) के विषय में सोचना चाहिए | मौन (गम्भीरता) का अर्थ है कि मनुष्य निरन्तर आत्मसाक्षात्कार के विषय में सोचता रहे | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति पूर्ण मौन इस दृष्टि से धारण किये रहता है | मन-निग्रह का अर्थ है - मन को इन्द्रियभोग से पृथक् करना | मनुष्य को अपने व्यवहार में निष्कपट होना चाहिए और इस तरह उसे अपने जीवन (भाव) को शुद्ध बनाना चाहिए | ये सब गुण मन की तपस्या के अन्तर्गत आते हैं |
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