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श्लोक 14.5

सत्त्वं रजस्तम इति गुणा: प्रकृतिसम्भवा: ।
निबध्‍नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥

सत्त्वम् - सतोगुण; रजः - रजोगुण; तमः - तमोगुण; इति - इस प्रकार; गुणाः - गुण; प्रकृति - भौतिक प्रकृति से; सम्भवाः - उत्पन्न; निबध्नन्ति - बाँधते हैं; महा-बाहो - हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; देहे - इस शरीर में; देहिनम् - जीव को; अव्ययम् - नित्य, अविनाशी |

भावार्थ

भौतिक प्रकृति तीन गुणों से युक्त है | ये हैं - सतो, रजो तथा तमोगुण | हे महाबाहु अर्जुन! जब शाश्र्वत जीव प्रकृति के संसर्ग में आता है, तो वह इन गुणों से बँध जाता है |

तात्पर्य

दिव्य होने के कारण जीव को इस भौतिक प्रकृति से कुछ भी लेना-देना नहीं है | फिर भी भौतिक जगत् द्वारा बद्ध हो जाने के कारण वह प्रकृति के तीनों गुणों के जादू से वशीभूत होकर कार्य करता है | चूँकि जीवों को प्रकृति की विभिन्न अवस्थाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीर मिले हुए हैं, अतएव वे उसी प्रकृति के अनुसार कर्म करने के लिए प्रेरित होते हैं | यही अनेक प्रकार के सुख-दुख का कारण है |

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