श्लोक 14.20
जन्ममृत्युजरादु:खैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते ॥ २० ॥
guṇān — qualities; etān — all these; atītya — transcending; trīn — three; dehī — the embodied; deha — the body; samudbhavān — produced of; janma — of birth; mṛtyu — death; jarā — and old age; duḥkhaiḥ — the distresses; vimuktaḥ — being freed from; amṛtam — nectar; aśnute — he enjoys.
भावार्थ
जब देहधारी जीव भौतिक शरीर से सम्बद्ध इन तीनों गुणों को लाँघने में समर्थ होता है, तो वह जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा अनेक कष्टों से मुक्त हो सकता है और इसी जीवन में अमृत का भोग कर सकता है ।
तात्पर्य
इस श्लोक में बताया गया है कि किस प्रकार इसी शरीर में कृष्णभावनामृत होकर दिव्य स्थिति में रहा जा सकता है । संस्कृत शब्द देही का अर्थ है देहधारी । यद्यपि मनुष्य इस भौतिक शरीर के भीतर रहता है, लेकिन अपने आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति के द्वारा वह प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त हो सकता है । वह इसी शरीर में आध्यात्मिक जीवन का सुखोपभोग कर सकता है, क्योंकि इस शरीर के बाद उसका वैकुण्ठ जाना निश्चित है । लेकिन वह इसी शरीर में आध्यात्मिक सुख उठा सकता है । दूसरे शब्दों में, कृष्णभावनामृत में भक्ति करना भव-पाश से मुक्ति का संकेत है और अध्याय १८ में इसकी व्याख्या की जायेगी । जब मनुष्य प्रकृति के गुणों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है, वह भक्ति में प्रविष्ट होता है ।
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