श्लोक 14.16
रजसस्तु फलं दु:खमज्ञानं तमस: फलम् ॥ १६ ॥
कर्मणः - कर्म का; सु-कृतस्य - पुण्य; आहुः - कहा गया है; सात्त्विकम् - सात्त्विक; निर्मलम् - विशुद्ध; फलम् - फल; रजसः - रजोगुण का; तु - लेकिन; फलम् - फल; दुःखम् - दुख; अज्ञानम् - व्यर्थ; तमसः - तमोगुण का; फलम् - फल |
भावार्थ
पुण्यकर्म का फल शुद्ध होता है और सात्त्विक कहलाता है । लेकिन रजोगुण में सम्पन्न कर्म का फल दुख होता है और तमोगुण में किये गये कर्म मूर्खता में प्रतिफलित होते हैं ।
तात्पर्य
सतोगुण में किये गये पुण्यकर्मों का फल शुद्ध होता है अतएव वे मुनिगण, जो समस्त मोह से मुक्त होते हैं, सुखी रहते हैं । लेकिन रजोगुण में किये गये कर्म दुख के कारण बनते हैं । भौतिक सुख के लिए जो भी कार्य किया जाता है उसका विफल होना निश्चित है । उदाहरणार्थ, यदि कोई गगनचुम्बी प्रासाद बनवाना चाहता है तो उसके बनने के पूर्व अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ता है | मालिक को धन-संग्रह के लिए कष्ट उठाना पड़ता है और प्रासाद बनाने वाले श्रमियों को शारीरिक श्रम करना होता है । इस प्रकार कष्ट तो होते ही हैं ।
अतएव भगवद्गीता का कथन है कि रजोगुण के अधीन होकर जो भी कर्म किया जाता है उसमें निश्चित रूप से महान कष्ट भोगने होते हैं । इससे यह मानसिक तुष्टि हो सकती है कि मैंने यह मकान बनवाया या इतना धन कमाया लेकिन यह कोई वास्तविक सुख नहीं है । जहाँ यह तमोगुण का सम्बन्ध है कर्ता को कुछ ज्ञान नहीं रहता अतएव उसके समस्त कार्य उस समय दुखदायक होते हैं और बाद में उसे पशु जीवन में जाना होता है । पशु जीवन सदैव दुखमय है, यद्यपि माया के वशीभूत होकर वे इसे समझ नहीं पाते । पशुओं का वध भी तमोगुण के कारण है । पशु-वधिक यह नहीं जानते कि भविष्य में इस पशु को ऐसा शारीर प्राप्त होगा, जिससे वह उनका वध करेगा । यही प्रकृति का नियम है । मानव समाज में यदि कोई किसी मनुष्य का वध कर दे तो उसे प्राणदण्ड मिलता है । यह राज्य का नियम है । अज्ञान वश लोग यह अनुभव नहीं करते कि परमेश्र्वर द्वारा नियन्त्रित एक पूरा राज्य है । प्रत्येक जीवित प्राणी परमेश्र्वर की सन्तान है और उन्हें चिंटी तक का मारा जाना सह्य नहीं है । इसके लिए मनुष्य को दण्ड भोगना पड़ता है । अतएव स्वाद के लिए पशु वध में रत रहना घोर अज्ञान है । मनुष्य को पशुओं के वध की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्र्वर ने अनेक अच्छी वस्तुऍं प्रदान कर रखी हैं । यदि कोई किसी कारण से मांसाहार करता है तो यह समझना चाहिए कि वह अज्ञानवश ऐसा कर रहा है और अपने भविष्य को अंधकारमय बना रहा है । समस्त प्रकार के पशुओं में से गोवध सर्वाधिक अधम है क्योंकि गाय हमें दूध देकर सभी प्रकार का सुख प्रदान करने वाली है । गोवध एक प्रकार से सबसे अधम कर्म है । वैदिक साहित्य में (ऋग्वेद ९.4.६४) गोभिः प्रीणित-मत्सरम् सूचित करता है कि जो व्यक्ति दूध पीकर गाय को मारना चाहता है वह सबसे बड़े अज्ञान में रहता है । वैदिक ग्रंथों में (विष्णु-पुराण १.१९.६५) एक प्रार्थना भी है जो इस प्रकार है -
namo brahmaṇya-devāya
go-brāhmaṇa-hitāya ca
jagad-dhitāya kṛṣṇāya
govindāya namo namaḥ
"हे प्रभु! आप गायों तथा ब्राह्मणों के हितैषी हैं और आप समस्त मानव समाज तथा विश्र्व के हितैषी हैं ।" तात्पर्य यह है कि इस प्रार्थना में गायों तथा ब्राह्मणों की रक्षा का विशेष उल्लेख है । ब्राह्मण आध्यात्मिक शिक्षा के प्रतीक हैं और गाएँ महत्त्वपूर्ण भोजन की, अतएव इन दोनों जीवों, ब्राह्मणों तथा गायों, को पूरी सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए । यही सभ्यता की वास्तविक प्रगति है । आधुनिक समाज में आध्यात्मिक ज्ञान की उपेक्षा की जाती है और गोवध को प्रोत्साहित किया जाता है । इससे यही ज्ञात होता है कि मानव समाज विपरीत दिशा में जा रहा है और अपनी भर्त्सना का पथ प्रशस्त कर रहा है । जो सभ्यता अपने नागरिकों को अगले जन्मों में पशु बनने के लिए मार्गदर्शन करती हो, वह निश्चित रूप से मानव सभ्यता नहीं है । निस्सन्देह, आधुनिक मानव-सभ्यता रजोगुण तथा तमोगुण के कारण कुमार्ग पर जा रही है | यह अत्यन्त घातक युग है और समस्त राष्ट्रों को चाहिए कि मानवता को महानतम संकट से बचाने के लिए कृष्णभावनामृत की सरलतम विधि प्रदान करें |
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