वेदाबेस​

श्लोक 13.5

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भ‍िर्विनिश्चितै: ॥ ५ ॥

ऋषिभिः - बुद्धिमान ऋषियों द्वारा; बहुधा - अनेक प्रकार से; गीतम् - वर्णित; छन्दोभिः - वैदिक मन्त्रों द्वारा; विविधैः - नाना प्रकार के; पृथक् - भिन्न-भिन्न; ब्रह्म-सूत्र - वेदान्त के; पदैः - नीतिवचनों द्वारा; च - भी; एव - निश्चित रूप से; हेतु-मद्भिः - कार्य-कारण से; विनिश्र्चितैः - निश्चित |

भावार्थ

विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है | इसे विशेष रूप से वेदान्त सूत्र में कार्य-कारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है |

तात्पर्य

इस ज्ञान की व्याख्या करने में भगवान् कृष्ण सर्वोच्च प्रमाण हैं | फिर भी विद्वान तथा प्रामाणिक लोग सदैव पूर्ववर्ती आचार्यों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं | कृष्ण आत्मा तथा परमात्मा की द्वैतता तथा अद्वैतता सम्बन्धी इस अतीव विवादपूर्ण विषय की व्याख्या वेदान्त नामक शास्त्र का उल्लेख करते हुए कर रहे हैं, जिसे प्रमाण माना जाता है | सर्वप्रथम वे कहते हैं "यह विभिन्न ऋषियों के मतानुसार है |" जहाँ तक ऋषियों का सम्बन्ध है, श्रीकृष्ण के अतिरिक्त व्यासदेव (जो वेदान्त सूत्र के रचयिता है) महान ऋषि हैं और वेदान्त सूत्र में द्वैत की भलीभाँति व्याख्या हुई है | व्यासदेव के पिता पराशर भी महर्षि हैं और उन्होंने धर्म सम्बन्धी अपने ग्रंथों में लिखा है - अहम् त्वं च तथान्ये - "तुम, मैं तथा अन्य सारे जीव अर्थात् हम सभी दिव्य हैं, भले ही हमारे शरीर भौतिक हों | हम अपने अपने कर्मों के कारण प्रकृति के तीनों गुणों के वशीभूत होकर पतित हो गये हैं | फलतः कुछ लोग उच्चतर धरातल पर हैं और कुछ निम्नतर धरातल पर हैं | ये उच्चतर तथा निम्नतर धरातल अज्ञान के कारण हैं, और अनन्त जीवों के रूप में प्रकट हो रहे हैं | किन्तु परमात्मा, जो अच्युत हैं, तीनों गुणों से अदूषित है, और दिव्य है |" इसी प्रकार मूल वेदों में, विशेषतया कठोपनिषद् में आत्मा, परमात्मा तथा शरीर का अन्तर बताया गया है | इसके अतिरिक्त अनेक महर्षियों ने इसकी व्याख्या की है, जिनमें पराशर प्रमुख माने जाते हैं |

छन्दोभिः शब्द विभिन्न वैदिक ग्रथों का सूचक है | उदाहरणार्थ, तैत्तरीय उपनिषद् जो यजुर्वेद की एक शाखा है, प्रकृति, जीव तथा भगवान् के विषय में वर्णन करती है |

जैसा कि पहले कहा जा चुका है क्षेत्र का अर्थ कर्मक्षेत्र है | क्षेत्रज्ञ की दो कोटियाँ है - जीवात्मा तथा परम पुरुष | जैसा कि तैत्तरीय उपनिषद् में (२.९) कहा गया है - ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा | भगवान् की शक्ति का प्राकट्य अन्नमय रूप में होता है, जिसका अर्थ है - अस्तित्व के लिए भोजन (अन्न) पर निर्भरता | यह ब्रह्म की भौतिकतावादी अनुभूति है | अन्न में परम सत्य की अनुभूति करने के पश्चात् फिर प्राणमय रूप में मनुष्य सजीव लक्षणों या जीवन रूपों में परम सत्य की अनुभूति करता है | ज्ञानमय रूप में यह अनुभूति सजीव लक्षणों से आगे बढ़कर चिन्तन, अनुभव तथा आकांक्षा तक पहुँचती है | तब ब्रह्म की उच्चतर अनुभूति होती है, जिसे विज्ञानमय रूप कहते हैं, जिससे जीव के मन तथा जीवन के लक्षणों को जीव से भिन्न समझा जाता है | उसके पश्चात् परम अवस्था आती है, जो आनन्दमय है, अर्थात् सर्व-आनन्दमाय प्रकृति की अनुभूति है | इस प्रकार से ब्रह्म अनुभूति की पाँच अवस्थाएँ हैं, जिन्हें ब्रह्म पुच्छं कहा जाता है | इनमें से प्रथम तीन - अन्नमय, प्राणमय तथा ज्ञानमाय - अवस्थाएँ जीवों के कार्यकलापों के क्षेत्रों से सम्बन्धित होती है | परमेश्र्वर इन कार्यकलापों के क्षेत्रों से परे है, और आनन्दमय है | वेदान्त सूत्र भी परमेश्र्वर को आनन्दमयो Sभ्यासात् कहकर पुकारता है | भगवान् स्वभाव से आनन्दमय हैं | अपने दिव्य आनन्द को भोगने के लिए वे विज्ञानमय, प्राणमय, ज्ञानमय तथा अन्नमय रूपों में विस्तार करते हैं | कार्यकलापों के क्षेत्र में जीव भोक्ता (क्षेत्रज्ञ) माना जाता है, किन्तु आनन्दमय उससे भिन्न होता है | इसका अर्थ यह हुआ कि यदि जीव आनन्दमय का अनुगमन करने में सुख मानता है, तो वह पूर्ण बन जाता है | क्षेत्र के ज्ञाता (क्षेत्रज्ञ) रूप में परमेश्वर की और उसके अधीन ज्ञाता के रूप में जीव की तथा कार्यकलापों के क्षेत्र की प्रकृति का यह वास्तविक ज्ञान है | वेदान्तसूत्र या ब्रह्मसूत्र में इस सत्य की गवेषणा करनी होगी |

यहाँ इसका उल्लेख हुआ है कि ब्रह्मसूत्र के नीतिवचन कार्य-कारण के अनुसार सुन्दर रूप से व्यवस्थित हैं | इनमें से कुछ सूत्र इस प्रकार हैं - न वियदश्रुतेः (२.३.२); नात्मा श्रुतेः (२.३.१८) तथा परात्तु ताच्छुतेः (२.३.४०) | प्रथम सूत्र कार्यकलापों के क्षेत्र को सूचित करता है, दूसरा जीव को और तीसरा परमेश्र्वर को, जो विभिन्न जीवों के आश्रयतत्त्व हैं |

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