श्लोक 11.38
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ ३८ ॥
त्वम् – आप; आदि-देवः – आदि परमेश्र्वर; पुरुषः – पुरुष; पुराणः –प्राचीन, सनातन; त्वम् – आप; अस्य – इस; विश्र्वस्य – विश्र्व का; परम् – दिव्य;निधानम् – आश्रय; वैत्ता – जानने वाला; असि – हओ; वेद्यम् – जानने योग्य, ज्ञेय; च– तथा; परम् – दिव्य; च – और; धाम – वास, आश्रय; त्वया – आपके द्वारा; ततम् –व्याप्त; विश्र्वम् – विश्र्व; अनन्त-रूप – हे अनन्त रूप वाले |
भावार्थ
आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं | आप सबकुछ जानने वाले हैं और आप ही सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है | आप भौतिक गुणों सेपरे परम आश्रय हैं | हे अनन्त रूप! यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है |
तात्पर्य
प्रत्येक वस्तु भगवान् पर आश्रित है, अतः वे ही परम आश्रयहैं | निधानम् का अर्थ है – ब्रह्म तेज समेत सारी वस्तुएँ भगवान् कृष्ण पर आश्रितहैं | वे इस संसार में घटित होने वाली प्रत्येक घटना को जानने वाले हैं और यदि ज्ञान का कोई अंत है, तो वे ही समस्त ज्ञान के अन्त हैं | अतः वे ज्ञाता हैं और ज्ञेय (वेद्यं) भी | वे जानने योग्य हैं, क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं | वैकुण्ठलोक में कारण स्वरूप होने से वे दिव्य हैं | वे दिव्यलोक में भी प्रधान पुरुष हैं |
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