श्लोक 10 . 21
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ २१ ॥
आदित्यानाम् – आदित्यों में; अहम् – मैं हूँ; विष्णुः – परमेश्र्वर; ज्योतिषाम् – समस्त ज्योतियों में; रविः – सूर्य; अंशुमान् – किरणमाली, प्रकाशमान; मरीचिः – मरीचि; मरुताम् – मरुतों में; अस्मि – हूँ; नक्षत्राणाम् – तारों में; अहम् – मैं हूँ; शशि – चन्द्रमा |
भावार्थ
मैं आदित्यों में विष्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूर्य, मरुतों में मरीचि तथा नक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ |
तात्पर्य
आदित्य बारह हैं, जिनमें कृष्ण प्रधान हैं | आकाश में टिमटिमाते ज्योतिपुंजों में सूर्य मुख्य है और ब्रह्मसंहिता में तो सूर्य को भगवान् का तेजस्वी नेत्र कहा गया है | अन्तरिक्ष में पचास प्रकार के वायु प्रवहमान हैं, जिनमें से वायु अधिष्ठाता मरीचि कृष्ण का प्रतिनिधि है |
नक्षत्रों में रात्रि के समय चन्द्रमा सर्वप्रमुख है, अतः वह कृष्ण का प्रतिनिधि है | इस श्लोक से प्रतीत होता है कि चन्द्रमा एक नक्षत्र है, अतः आकाश में टिमटिमाने वाले तारे भी सूर्यप्रकाश को परिवर्तित करते हैं | वैदिक वाङ्मय में ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत अनेक सूर्यों के सिद्धान्त की स्वीकृति प्राप्त नहीं है | सूर्य एक है और सूर्य के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित है, तथा अन्य नक्षत्र भी | चूँकि भगवद्गीता से सूचित होता है कि चन्द्रमा नक्षत्र है, अतः टिमटिमाते तारे सूर्य न होकर चन्द्रमा के सदृश है |
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