श्लोक 10 . 20
अहम् – मैं; आत्मा- आत्मा; गुडाकेश – हे अर्जुन; सर्व-भूत – समस्त जीव; आशय-स्थितः – हृदय में स्थित; अहम् – मैं; आदि – उद्गम; मध्यम् – मध्य; च – भी; भूतानाम् – समस्त जीवों का; अन्तः – अन्त; एव – निश्चय ही; च – तथा |
भावार्थ
हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ | मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ |
तात्पर्य
इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहकर सम्बोधित किया गया है जिसका अर्थ है, :निद्रा रूपी अंधकार को जितने वाला |” जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार में सोये हुए हैं, उनके लिए यह समझ पाना सम्भव नहीं है कि भगवान् किन-किन विधियों से इस लोक में तथा वैकुण्ठलोक में प्रकट होते हैं | अतः कृष्ण द्वारा अर्जुन के लिए इस प्रकार का संबोधन महत्त्वपूर्ण है | चूँकि अर्जुन ऐसे अंधकार से ऊपर है, अतः भगवान् उससे विविध ऐश्र्वर्यों को बताने के लिए तैयार हो जाते हैं |
सर्वप्रथम कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वे अपने मूल विस्तार के कारण समग्र दृश्यजगत की आत्मा हैं | भौतिक सृष्टि के पूर्ण भगवान् अपने मूल विस्तार के द्वारा पुरुष अवतार धारण करते हैं और उन्हीं से सब कुछ आरम्भ होता है | अतः वे प्रधान माहात्तत्व की आत्मा हैं | इस सृष्टि का कारण महत्तत्व नहीं होता, वात्सव में महाविष्णु सम्पूर्ण भौतिक शक्ति या महत्तत्व में प्रवेश करते हैं | वे आत्मा हैं | जब महाविष्णु इस प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में प्रवेश करते हैं तो वे प्रत्येक जीव में पुनः परमात्मा के रूप में प्रकट होते हैं | हमने ज्ञात है कि जीव का शरीर आत्मा के स्फुलिंग की उपस्थिति के कारण विद्यमान रहता है | बिना आध्यात्मिक स्फुलिंग के शरीर विकसित नहीं हो सकता | उसी प्रकार भौतिक जगत् का तब तक विकास नहीं होता, जब तक परमात्मा कृष्ण का प्रवेश नहीं हो जाता | जैसा कि उपनिषद् में कहा गया है – प्रकृत्यादि सर्वभूतान्तर्यामी च नारायणः – परमात्मा रूप में भगवान् समस्त प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में विद्यमान हैं |
The three puruṣa-avatāras are described in Śrīmad-Bhāgavatam. They are also described in the Nārada Pañcarātra, one of the Sātvata-tantras. Viṣṇos tu trīṇi rūpāṇi puruṣākhyāny atho viduḥ: the Supreme Personality of Godhead manifests three features – as Kāraṇodaka-śāyī Viṣṇu, Garbhodaka-śāyī Viṣṇu and Kṣīrodaka-śāyī Viṣṇu – in this material manifestation. The Mahā-viṣṇu, or Kāraṇodaka-śāyī Viṣṇu, is described in the Brahma-saṁhitā (5.47). Yaḥ kāraṇārṇava-jale bhajati sma yoga-nidrām: the Supreme Lord, Kṛṣṇa, the cause of all causes, lies down in the cosmic ocean as Mahā-viṣṇu. Therefore the Supreme Personality of Godhead is the beginning of this universe, the maintainer of the universal manifestations, and the end of all energy.
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