वेदाबेस​

श्लोक 10 . 2

न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय: ।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: ॥ २ ॥

न – कभी नहीं; मे – मेरे; विदुः- जानते हैं; सुर-‍गणाः – देवता; प्रभवम् – उत्पत्ति या ऐश्र्वर्य को; न – कभी नहीं; महा-ऋषयः – बड़े-बड़े ऋषि; अहम् – मैं हूँ; आदिः – उत्पत्ति; हि – निश्चय ही; देवानाम् – देवताओं का; महा-ऋषीणाम् – महर्षियों का; च – भी; सर्वशः – सभी तरह से |

भावार्थ

न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्र्वर्य को जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारणस्वरूप (उद्गम) हूँ |

तात्पर्य

जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है, भगवान् कृष्ण ही परमेश्र्वर हैं | उनसे बढ़कर कोई नहीं है, वे समस्त कारणों के कारण हैं | यहाँ पर भगवान् स्वयं कहते हैं कि वे समस्त देवताओं तथा ऋषियों के कारण हैं | देवता तथा महर्षि तक कृष्ण को नहीं समझ पाते | जब वे उनके नाम या उनके व्यक्तित्व को नहीं समझ पाते तो इस क्षुद्रलोक के तथाकथित विद्वानों के विषय में क्या कहा जा सकता है? कोई नहीं जानता कि परमेश्र्वर क्यों मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर आते हैं और ऐसे विस्मयजनक असामान्य कार्यकलाप करते हैं | तब तो यह समझ लेना चाहिए कि कृष्ण को जानने के लिए विद्वता आवश्यक नहीं है | बड़े-बड़े देवताओं तथा ऋषियों ने मानसिक चिन्तन द्वारा कृष्ण को जानने का प्रयास किया, किन्तु जान नहीं पाये | श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट कहा गया है कि बड़े से बड़े देवता भी भगवान् को नहीं जान पाते | जहाँ तक उनकी अपूर्ण इन्द्रियाँ पहुँच पाती हैं, वहीँ तक वे सोच पाते हैं और निर्विशेषवाद के ऐसे विपरीत निष्कर्ष को प्राप्त होते हैं, जो प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा व्यक्त नहीं होता, या कि वे मनः-चिन्तन द्वारा कुछ कल्पना करते हैं, किन्तु इस तरह के मूर्खतापूर्ण चिन्तन से कृष्ण को नहीं समझा जा सकता |

यहाँ पर भगवान् अप्रत्यक्ष रूप में यह कहते हैं कि यदि कोई परमसत्य को जानना चाहता है तो , “लो, मैं भगवान् के रूप में यहाँ हूँ | मैं परम भगवान् हूँ |” मनुष्य को चाहिए कि इसे समझे | यद्यपि अचिन्त्य भगवान् को साक्षात् रूप में कोई नहीं जान सकता, तो भी वे विद्यमान रहते हैं | वास्तव में हम सच्चिदानन्द रूप कृष्ण को तभी समझ सकते हैं, जब भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में उनके वचनों को पढ़ें | जो भगवान् की अपरा शक्ति में हैं, उन्हें ईश्र्वर की अनुभूति किसी शासन करने वाली शक्ति या निर्विशेष ब्रह्म रूप में होती हैं, किन्तु भगवान् को जानने के लिए दिव्य स्थिति में होना आवश्यक है |

चूँकि अधिकांश लोग कृष्ण को उनके वास्तविक रूप में नहीं समझ पाते, अतः वे अपनी अहैतुकी कृपा से ऐसे चिन्तकों पर दया दिखाने के लिए अवतरित होते हैं | ये चिन्तक भगवान् के असामान्य कार्यकलापों के होते हुए भी भौतिक शक्ति (माया) से कल्मषग्रस्त होने के कारण निर्विशेष ब्रह्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं | केवल भक्तगण ही जो भगवान् की शरण पूर्णतया ग्रहण कर चुके हैं, भगवत्कृपा से समझ पाते हैं कि कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं | भगवद्भक्त निर्विशेष ब्रह्म की परवाह नहीं करते | वे अपनी श्रद्धा तथा भक्ति के कारण परमेश्र्वर की शरण ग्रहण करते हैं और कृष्ण की अहैतुकी कृपा से ही उन्हें समझ पाते हैं | अन्य कोई उन्हें नहीं समझ पाता | अतः बड़े से बड़े ऋषि भी स्वीकार करते हैं कि आत्मा या परमात्मा तो वह है, जिसकी हम पूजा करते हैं |

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