श्लोक 15.17
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ॥ १७ ॥
uttamaḥ — the best; puruṣaḥ — personality; tu — but; anyaḥ — another; parama–ātmā — the Supreme Self; iti — thus; udāhṛtaḥ — is said; yaḥ — who; loka — of the universe; trayam — the three divisions; āviśya — entering; bibharti — is maintaining; avyayaḥ — inexhaustible; īśvaraḥ — the Lord.
भावार्थ
इन दोनों के अतिरिक्त एक परम पुरुष परमात्मा है जो साक्षात् अविनाशी है और जो तीनों लोकों में प्रवेश करके उनका पालन कर रहा है ।
तात्पर्य
इस श्लोक का भाव कठोपनिषद् (२.२.१३) तथा श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में (६.१३) अत्यन्त सुन्दर ढंग से व्यक्त हुआ है । वहाँ यह कहा गया है कि असंख्य जीवों के नियन्ता जिनमें से कुछ बद्ध हैं और कुछ मुक्त हैं एक परम पुरुष है जो परमात्मा है । उपनिषद् का श्लोक इस प्रकार है नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानाम् । सारांश यह है कि बद्ध तथा मुक्त दोनों प्रकार के जीवों में से एक परम पुरुष भगवान् है जो उन सबका पालन करता है और उन्हें कर्मों के अनुसार भोग की सुविधा प्रदान करता है । वह भगवान् परमात्मा रूप में सबके हृदय में स्थित है । जो बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें समझ सकता है वही पूर्ण शान्ति लाभ कर सकता है अन्य कोई नहीं ।
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