वेदाबेस​

श्लोक 7 . 19

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ: ॥ १९ ॥

bahūnām — many; janmanām — repeated births and deaths; ante — after; jñāna-vān — one who is in full knowledge; mām — unto Me; prapadyate — surrenders; vāsudevaḥ — the Personality of Godhead, Kṛṣṇa; sarvam — everything; iti — thus; saḥ — that; mahā-ātmā — great soul; su-durlabhaḥ — very rare to see.

भावार्थ

अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |

तात्पर्य

भक्ति या दिव्य अनुष्ठानों को करता हुआ जीव अनेक जन्मों के पश्चात् इस दिव्यज्ञान को प्राप्त कर सकता है कि आत्म-साक्षात्कार का चरम लक्ष्य श्रीभगवान् हैं | आत्म-साक्षात्कार के प्रारम्भ में जब मनुष्य भौतिकता का परित्याग करने का प्रयत्न करता है तब निर्विशेषवाद की ओर उसका झुकाव हो सकता है, किन्तु आगे बढ़ने पर वह यह समझ पता है कि आध्यात्मिक जीवन में भी कार्य हैं और इन्हीं से भक्ति का विधान होता है | इसकी अनुभूति होने पर वह भगवान् के प्रति आसक्त हो जाता है और उनकी शरण ग्रहण कर लेता है | इस अवसर पर वह समझ सकता है कि श्रीकृष्ण की कृपा ही सर्वस्व है, वे ही सब कारणों के कारण हैं और यह जगत् उनसे स्वतन्त्र नहीं है | वह इस भौतिक जगत् को अध्यात्मिक विविधताओं का विकृत प्रतिबिम्ब मानता है और अनुभव करता है कि प्रत्येक वस्तु का परमेश्र्वर कृष्ण से सम्बन्ध है | इस प्रकार वह प्रत्येक वस्तु को वासुदेव श्रीकृष्ण से सम्बन्धित समझता है | इस प्रकार की वासुदेवमयी व्यापक दृष्टि होने पर भगवान् कृष्ण को परंलक्ष्य मानकर शरणागति प्राप्त होती है | ऐसे शरणागत महात्मा दुर्लभ हैं |

इस श्लोक की सुन्दर व्याख्या श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में (३.१४-१५) मिलती है –

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् |
स भूमिं विश्र्वतो वृत्यात्यातिष्ठद् दशांगुलम् ||
 
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् |
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||

छान्दोग्य उपनिषद् (५.१.१५) में कहा गया है – न वै वाचो न चक्षूंषि न श्रोत्राणि न मनांसीत्याचक्षते प्राण इति एवाचक्षते ह्येवैतानि सर्वाणि भवन्ति – जीव के शरीर की बोलने की शक्ति, देखने की शक्ति, सुनने की शक्ति, सोचने की शक्ति ही प्रधान नहीं है |समस्त कार्यों का केन्द्रबिन्दु तो वह जीवन (प्राण) है | इसी प्रकार भगवान् वासुदेव या भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त पदार्थों में मूल सत्ता हैं | इस देह में बोलने, देखने, सुनने तथा सोचने आदि की शक्तियाँ हैं, किन्तु यदि बे भगवान् से सम्बन्धित न हों तो सभी व्यर्थ हैं | वासुदेव सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक वस्तु वासुदेव है | अतः भक्त पूर्ण ज्ञान में रहकर शरण ग्रहण करता है (तुल्नार्थ भगवद्गीता ७.१७ तथा ११.४०) |

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