श्लोक 6 . 45
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥ ४५ ॥
prayatnāt — by rigid practice; yatamānaḥ — endeavoring; tu — and; yogī — such a transcendentalist; saṁśuddha — washed off; kilbiṣaḥ — all of whose sins; aneka — after many, many; janma — births; saṁsiddhaḥ — having achieved perfection; tataḥ — thereafter; yāti — attains; parām — the highest; gatim — destination.
भावार्थ
और जब योगी कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगति करने का प्रयास करता है, तो अन्ततोगत्वा अनेकानेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात् सिद्धि-लाभ करके वह परम गन्तव्य को प्राप्त करता है |
तात्पर्य
सदाचारी, धनवान या पवित्र कुल में उत्पन्न पुरुष योगाभ्यास के अनुकूल परिस्थिति से सचेष्ट हो जाता है | अतः वह दृढ संकल्प करके अपने अधूरे कार्य को करने में लग जाता है और इस प्रकार वह अपने को समस्त भौतिक कल्मष से शुद्ध कर लेता है | समस्त कल्मष से मुक्त होने पर उसे परम सिद्धि-कृष्णभावनामृत – प्राप्त होती है | कृष्णभावनामृत ही समस्त कल्मष से मुक्त होने की पूर्ण अवस्था है | इसकी पुष्टि भगवद्गीता में (७.२८) हुई है –
yeṣāṁ tv anta-gataṁ pāpaṁ
janānāṁ puṇya-karmaṇām
te dvandva-moha-nirmuktā
bhajante māṁ dṛḍha-vratāḥ
“अनेक जन्मों तक पुण्यकर्म करने से जब कोई समस्त कल्मष तथा मोहमय द्वन्द्वों से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तभी वह भगवान् की दिव्य प्रेमभक्ति में लग पता है |”
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