श्लोक 6 . 6
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ ६ ॥
बन्धुः – मित्र; आत्मा – मन; आत्मनः – जीव का; तस्य – उसका; येन – जिससे; आत्मा- मन; एव – निश्चय ही; आत्मना – जीवात्मा के द्वारा; जितः – विजित; अनात्मनः – जो मन को वश में नहीं कर पाया उसका; तू – लेकिन; शत्रुत्वे – शत्रुता के करण; वर्तेत – बना रहता है; आत्मा एव – वाही मन; शत्रु-वत् – शत्रु की भाँति |
भावार्थ
जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया इसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा |
तात्पर्य
अष्टांगयोग के अभ्यास का प्रयोजन मन को वश में करना है, जिससे मानवीय लक्ष्य प्राप्त करने में वह मित्र बना रहे | मन को वश में किये बिना योगाभ्यास करना मात्र समय को नष्ट करना है | जो अपने मन को वश में नहीं कर सकता, वह सतत अपने परं शत्रु के साथ निवास करता है और इस तरह उसका जीवन तथा लक्ष्य दोनों ही नष्ट हो जाते हैं | जीव की स्वाभाविक स्थिति यह है कि वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करे | अतः जब तक मन अविजित शत्रु बना रहता है, तब तक मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की आज्ञाओं का पालन करना होता है | किन्तु जब मन पर विजय प्राप्त हो जाती है, तो मनुष्य इच्छानुसार उस भगवान् की आज्ञा का पालन करता है जो सबों के हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित है | वास्तविक योगाभ्यास हृदय के भीतर परमात्मा से भेंट करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना है | जो व्यक्ति साक्षात् कृष्णभावनामृत स्वीकार करता है वह भगवान् की आज्ञा के प्रति स्वतः समर्पित हो जाता है |
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